- शुष्कं तर्कं परित्यज्य आश्रयस्व श्रुतिं स्मृतिम्।[1]
नीरस तर्क को त्याग कर श्रुति और स्मृति का आश्रय लो।
- तर्कोऽप्रतिष्ठ:।[2]
तर्क का कोई स्थान (सम्मान या प्रतिष्ठा) नहीं है।
- अचिन्त्या खलु ये भावा न तांस्तर्केण साधयेत्।[3]
जो भाव चिन्तन से परे हैं उनको तर्क से सिद्ध करने की चेष्टा न करें
- हेतूनामन्तमासाद्य विपुलं ज्ञानमुत्तमम्।[4]
सारे तर्को के समाप्त होने पर उत्तम ज्ञान होता है।
- जिज्ञासा न तु कर्तव्या धर्मस्य परितर्कणात्।[5]
तर्क का सहारा लेकर धर्म को जानने की इच्छा नहीं करनी चाहिये।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वनपर्व महाभारत 200.114
- ↑ वनपर्व महाभारत 313.117
- ↑ भीष्मपर्व महाभारत 5.12
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 162.8
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 162.21
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज