तरु दोउ धरनि गिरे भहराइ -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

Prev.png
राग रामकली



तरु दोउ धरनि गिरे भहराइ।
जर सहित अरराइ कै, आघात सब्‍द सुनाइ।
भए चक्रित लोग ब्रज के, सकुचि रहे डराइ।
कोउ रहे आकास देखत, कोउ रहे सिर नाइ।
घरिक लौं जाकि रहे जहँ-तहँ, देह-गति बिसराइ।
निरखि जसुमति अजिर देखै, बँधे नाहिं कन्‍हाइ।
वृच्‍छ दोउ धर परे देखे, महरि कीन्‍ह पुकार।
अबहिं आँगन छाँड़ि आई, चपयौ तरु की डार।
मैं अभागिनि, बाँधि राखे, नंद-प्रान अधार।
सोर सुनि नँद-द्वार आए, बिकल गोपी ग्‍वार।
देखि तरु सब अति डराने, हैं बड़े बिस्‍तार।
गिरे कैसें बड़ौ अचरज, नैंकु नहीं बयार।
दुहूँ तरु बिच स्‍याम बैठे रहे ऊखल लागि।
भुजा छोरि उठाइ लीन्‍हे, महर हैं बड़भागि।
निरखि जुवती अंग हरि के, चोट जनि कहुँ लागि।
कबहुँ बाँधति कबहुँ मारति, महरि बड़ी अभागि।
नैन जल भरि ढारि जसुमति, सुतहिं कंठ लगाइ।
जरै रिस जिहिं तुमहिं बाँध्‍यौ, लगै मोहि बलाइ।
नंद सुनि मोहि कहा कहैंगे, देखि तरु दोउ आइ।
मैं मरौं तुम कुसल रहौ दोउ, स्‍याम-हलधर भाइ।
आइ घर जो नंद देखे, तरु गिरे दो भारि।
बाँधि राखति सुतहिं मेरे, देत महरिहिं गारि।
तात कहि तब स्‍याम दौरे, महर लियौ अँकवारि।
कैसैं उबरे बृच्‍छ-तर तै सूर है बलिहारि।।387।।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः