तबतै बहुरि दरस नहिं दीन्हौ।
ऊधौ हरि मथुरा कुबिजा गृह, बहै नेम व्रत लीन्हौ।।
चारि मास बरषा कै आगम, मुनिहुँ रहत इक ठौर।
दासीधाम पवित्र जानि कै, नहि देखत उठि और।।
ब्रजबासी सब ग्वाल कहत है, कत ब्रज छाड़ि गये।
‘सूर’ सगुनई जात मधुपुरी, निर्गुन नाम भये।।3644।।