विरह-पदावली -सूरदास
राग रामकली (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) हम (मोहन को) देखने की उमंग में मरी जाती हैं। पहिले जिन्हें देखते हुए सौ कल्प एक पल के समान बीत जाते थे, अब वे ही (हम) दुःख से पूर्ण हो रही हैं। (जो हम पहिले) एक पल के लिये भी (श्यामसुन्दर का) ओट में होना नहीं सह पाती थीं, अब (उन्हें देखे बिना) दिन-पर-दिन बीतते जा रहे हैं। घर में भी हम बिना सम्मान की (अपमानित) हैं; किंतु इतने पर भी शरीर से (पापी) प्राण निकलते नहीं हैं। यद्यपि (लोग) मुझे बहुत समझाते हैं और उनके संकोच के कारण (सब कुछ) मान (भी) लिया जाता है; किंतु (मोहन को) देखे बिना अन्तःकरण जलता रहता है, कौन आकर उसे बुझाये। (श्यामसुन्दर भला) कुब्जा के पास से कैसे आने पायेंगे, उन्हें अब (हमारे प्रेम का महत्त्व) जान पड़ेगा; क्योंकि (उसने) यहाँ की भी वे पिछली (प्रेम की) गायी हुई बड़ी (लम्बी-चौड़ी) बातें जान ली होंगी। (जैसे यहाँ प्रेम की बड़ी बातें बनाते थे, वैसी ही वहाँ भी बनाते हैं।) यदि दो दिन के लिये (वे) आ भी गये तो क्या (पहिले) समय के समान हम (उन्हें) मानेंगी? (कभी नहीं। अरे,) जल को कोई करोड़ों बार खौलाकर ठंढा करे, किंतु वह पहिले के समान (स्वादिष्ट) नहीं बन पाता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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