तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 122 में तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश का वर्णन हुआ है।[1]

भीष्म का संवाद

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! मैत्रेय के इस प्रकार कहने पर भगवान वेदव्यास उनसे इस प्रकार बोले- ‘ब्राह्मन! तुम बड़े सौभाग्यशाली हो, जो ऐसी बातों को ज्ञान रखते हो। भाग्य से तुम को ऐसी बुद्धि प्राप्त हुई है। ‘संसार के लोग उत्तम गुण वाले पुरुष की ही अधिक प्रशंसा करते हैं। सौभाग्य की बात है कि रूप, अवस्था और सम्पत्ति के अभिमान तुम्हारे ऊपर प्रभाव नहीं डालते हैं। यह तुम पर देवताओं का महान अनुग्रह है। इसमें संशय नहीं है। ‘अस्तु, अब मैं दान से भी उत्तम धर्म का तुम से वर्णन करता हूँ, सुनो।

उत्तम धर्म का वर्णन

इस जगत में जितने शास्त्र और जो कोई भी प्रवृत्तियाँ हैं, वे सब वेद को ही सामने रखकर क्रमशः प्रचलित हुए हैं। ‘मैं दान की प्रशंसा करता हूँ, तुम भी तपस्या और शास्त्र ज्ञान की प्रशंसा करते हो, वास्तव में तपस्या पवित्र और वेदाध्ययन एवं स्वर्ग का उत्तम साधन है। ‘मैंने सुना है कि तपस्या और विद्या दोनों से ही मनुष्य महान पद को प्राप्त करता है। अन्यान्य जो पाप हैं, उन्हें भी तपस्या से ही दूर कर सकता है। ‘जो कोई भी उद्देश्य लेकर पुरुष तपस्या में प्रवृत्त होता है, वह सब उसे तप और विद्या से प्राप्त हो जाता है; यह हमारे सुनने में आया है। ‘जिससे सम्बन्ध स्थापित करना अत्यन्त कठिन है, जो दुर्धर्ष, दुर्लभ और दुर्लंध्य है, वह सब तपस्या से सुलभ हो जाता है; क्योंकि तपस्या का बल सबसे बड़ा है।

तप की प्रशंसा

‘शराबी, चोर, गर्भहत्यारा, गुरु की शय्या पर शयन करने वाला पापी भी तपस्या द्वारा सम्पूर्ण संसार से पार हो जाता है और अपने पापों से छुटकारा पा जाता है। ‘जो सब प्रकार की विद्याओं में प्रवीण हैं, वही नेत्रवान है और तपस्वी, चाहे जैसा हो उसे भी नेत्रवान ही कहा जाता है। इन दोनों को सदा नमस्कार करना चाहिये। ‘जो विद्या के धनी और तपस्वी हैं, वे सब पूजनीय हैं तथा दान देने वाले भी इस लोक में धन-सम्पत्ति और परलोक में सुख पाते हैं। ‘संसार के पुण्यात्मा पुरुष अन्न-दान देकर इस लोक में भी सुखी होते हैं और मृत्यु के बाद ब्रह्मलोक तथा दूसरे शक्तिशाली लोक को प्राप्त कर लेते हैं। ‘दानी स्वयं पूजित और सम्मानित होकर दूसरों का पूजन और सम्मान करते हैं। दाता जहाँ-जहाँ जाते हैं, सब ओर उनकी स्तुति की जाती है। ‘मनुष्य दान करता हो या न करता हो, वह ऊपर के लोक में रहता हो या नीचे के लोक में, जिसे कर्मानुसार जैसा लोक प्राप्त होगा, वह अपने उसी लोक में जायगा।

गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश

‘मैत्रेय जी! तुम जो कुछ चाहोगे, उसके अनुसार तुम को अन्न-पान कर सामग्री प्राप्त होगी। तुम बुद्धिमान, कुलीन, शास्त्रज्ञ और दयालु हो। तुम्हारी तरुण अवस्था है और तुम व्रतधारी हो। अतः सदा धर्म-पालन में लगे रहो और गृहस्थो के लिये जो सबसे उत्तम एवं मुख्य कर्तव्य है, उसे ग्रहण करो- ध्यान देकर सुनो। ‘जिस कुल में पति अपनी पत्नी से और पत्नी अपने पति से संतुष्ट रहती हो, वहाँ सदा कल्याण होता है।[1]

‘जिस प्रकार जल से शरीर का मल धुल जाता है और अग्नि की प्रभा से अन्धकार दूर हो जाता है, उसी प्रकार दान और तपस्या से मनुष्य के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं- महाभाग! ब्राह्मण दान, तपस्या और भगवान विष्णु की आराधना के द्वारा संसार सागर से पार हो जाता है।[2] जिन्होंने अपने वर्णोचित कर्मों का अनुष्ठान करके अनतःकरण को शुद्ध बना लिया है, तपस्या द्वारा जिनका चित्त निर्मल हो गया है तथा विद्या के प्रभाव से जिनका मोह दूर हो गया है, ऐसे मनुष्य के उद्धार के लिये भगवान श्रीहरि माने गये हैं। अतः तुम भगवान विष्णु की आराधना में तत्पर हो सदा उनके भक्त बने रहो और निरन्तर उन्हें नमस्कार करो। अष्टाक्षर मन्त्र के जप में तत्पर रहने वाले भगवद्भक्त कभी नष्ट नहीं होते। जो इस जगत में प्रणवोपासना में संलग्न और परमार्थ साधन में तत्पर हैं, ऐसे श्रेष्ठ पुरुषों के संग से सारा पाप दूर करके अपने आपको पवित्र करो। ‘मैत्रेय! तुम्हारा कल्याण हो। अब मैं सावधानी के साथ अपने आश्रम को जाता हूँ। मैंने जो कुछ बताया है, उसे याद रखना; इससे तुम्हारा कल्याण होगा। तब मैत्रेय जी ने व्यास जी को प्रणाम करके उनकी परिक्रमा की और हाथ जोड़कर कहा- ‘भगवन! आप मंगल प्राप्त करें’।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 122 श्लोक 1-17
  2. 2.0 2.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 122 श्लोक 18-20

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मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की 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माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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