तन मन नारि डारतिं वारि -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सोरठ


तन मन नारि डारतिं वारि।
स्याम सोभासिंधु जान्यौ, अंग अंग निहारि।।
पचि रही मन ज्ञान करि करि लहतिं नाहिंन तीर।
स्यामतन जल-रासि-पूरन, महा गुन गंभीर।।
पीतपट फहरानि मानौ, लहरि उठति अपार।
निरखि छबि थकि तीर बैठी, कहुँ आर न पार।।
चलत अंग त्रिभंग करिकै, भौंह भाव चलाइ।
मनौ बिच बिच भँवर डोलत, चित परत भरमाइ।।
स्रवन कुंडल मकर मानौ, नैन मीन बिसाल।
सलिल झलकनि-रूप-आभा, देखि री नंदलाल।।
बाहु दंड भुजंग मानौ, जलधि-मध्य-बिहार।
मुक्तमाला मनौ सुरसरि, ह्वै चली द्वै धार।।
अँग अँग भूषन बिराजत, कनकमुकुट प्रभास।
उदधि मथि मनु प्रगट कीन्हौ श्री, सुधा परगास।।
चकित भई तिय निरखि सोभा देहगति बिसराइ।
‘सूर’ प्रभु छबिरासि नागर, जानि जाननिराइ।।1820।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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