तऊ न गोरस छाँड़ि दियौ।
चहुँ-फल-भवन, गह्यौ, सारँग-रिपु-बाजि धरा अथयौ।।
अमी-बचन-रुचि रचत कपट हठ झगरौ फेरि ठयौ।
कुमुदिनि प्रफुलित, हौं जिय सकुची, लै मृग-चंद नयौ।।
जानि निसा सिसु-रूप बिलोकत नवल किसोर भयौ।
तब तैं सूर नैंकु नहिं छूटत, मन अपनाइ लयौ।।1671।।