तऊ गुपाल गोकुल के वासी।
ऐसी बातै बहुतै कहि कहि, लोग करत है हाँसी।।
मथि मथि सिधु सुरनि कौ पोपे, शंभु भए विष आसी।
इनि हति कस राज औरहिं दै, चाहि लई इक दासी।।
बिसरौ हमैं बिरह दुख अपनौ, चली चाल औरासी।
ऐसी बिहँगम प्रीति न देखी, प्रगट न परखी खासी।।
आरज पंथ छुड़ाइ गोपिका, कुलमरजादा नासी।
आजु करत सुखराज ‘सूर’ प्रभु, हमै देत दुख गाँसी।। 3375।।