ढीठ भए ये डोलत हैं।
मौन रहत मो पर रिस पाए, हरि सौ खेलत बोलत हैं।।
कहा कहौ निठुराई इनकी, सपनैहु ह्याँ नहिं आवत हैं।
लुब्धे जाइ स्याम सुंदर कौ, उनही के गुन गावत हैं।।
जैसै इन मोकौ परितेजी, कबहूँ फिरि न निहारत है।
'सूर' भले कौ भलौ होइगौ, वै तौ पंथ बिगारत है।।2254।।