ढाढ़ी दान-मान के भाई!
नंद उदार भए पहिरावत, बहुत भली बनि आई।
जक-जब नाम धरौं ढाढ़ी कौ, जनम-करम-गुन गाऊं।
अर्थ-धर्म-कामना-मुक्ति-फल, चारि पदारथ पाऊं।
लै ढाढ़िनि कंचन-मुनि-मुक्ता, नाना वसन अनूप।
हीरा-रतन-पटंबर हमकौं दीन्हे ब्रज के भूप।
अब तौ भली भई, नारायन-दरस निरखि, निधि पाई।
जहँ-तहँ बंदनवार बिराजित, घर-घर बजति बधाई।
जो जांच्यौ सोई तिन पायौ, तुम्हरी भई बड़ाई।
भक्ति देहु, पालनैं झुलाऊं, सूरदास बलि जाई।।38।।