ठकुरायत गिरिधर की साँची।
कौरव जीति जुधिष्ठिर-राजा, कीरति तिहूँ लोक मैं माँची।
ब्रह्म-रुद्र डर डरत काल कैं काल डरत भ्रू-भँग की आँची।
रावन सौ नृप जात न जान्यौ, माया विषम सीस पर नाची।
गुरु-सुत आनि दिए जमपुरे तैं बिप्र सुदामा कियौ अजाची।
दुस्सासन कटि-बसन छुड़ावत सुमिरत नाम द्रौपदी बाँची।
हरि-चरनारबिद तजि लागत अनत कहूँ, तिनकी मति काँची।
सूरदास भगवंत भजत जे, तिनकी लीक चहूँ जुग खाँची।।18।।