टूट गया तब मनका बन्धन, बरबस तुरत हुआ अभिसार।
कहाँ, कौन, वह क्यों जाती है, रहा न इसका तनिक विचार॥
चली तीर की तरह लक्ष्य पर मिला स्वयं प्रियका संधान।
पहुँच गयी वह प्रिय चरणों में देखे चरण-जलज रस-खान॥
देख मृदु स्मित, दृष्टि-भंगिमा, चित्त-वित्तहारी भ्रू-भंग।
बाह्य चेतना गयी, पड़ी प्रिय अङ्क, शिथिल सब अवयव-अंग॥
सिर कर धर, कर पवन, कराया प्यारी को प्रियतम ने चेत।
सहमी, उठी दूर जा बैठी, देख रही माधुर्य-निकेत॥
देख वदन मोहन रसवर्षी हुआ हृदय साहस-संचार।
बोली मधुर विनम्र वचन शुचि बनकर स्वयं ’दैन्य’ साकार॥
मिटे अहंता-ममता, आशा-तृष्णा, भोग-वासना-काम।
हो समत्व सर्वत्र सर्वदा मिटे द्वन्द्व का भेद तमाम॥
रह न जाय जब कल्पित-सा भी भुक्ति-मुक्ति-इच्छा का लेश।
परम शान्ति का अनुभव हो जब, तब ख़ाली हो हृदय अशेष॥
जिसका हृदय हो गया ख़ाली पूरा, यों न रही कुछ चीज।
उसमें पड़ता पावन रसमय ’प्रिय-सुख-सुखी प्रेम’ का बीज॥
पा वह प्रेमी जन-मन के मधुमय निर्मल रस-जल का संग।
बचनावलि-अनुकूल-पवन पा बीज बदलता अपना रङ्ग॥
होता वह अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित, देता मधु फल-दान।
मिलता परमाह्लाद मुझे, मन बढ़ता अति लालच निर्मान॥