गीता रहस्य -तिलक पृ. 469

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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पन्द्रहवां प्रकरण

बस, यही दूसरी रीति है कि जिससे कर्म-अकर्म, धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप आदि का विचार किया जाता है। व्यावहारिक धर्म के अन्त को इस रीति से देख कर उसके मूलतत्त्वों को ढूंढ निकालना शास्त्र का काम है, तथा उस विषय के केवल नियमों को एकत्र करके बतलाना आचार-संग्रह कहलाता है। कर्म-मार्ग का आचार-संग्रह स्मृतिग्रन्थों में है; और उसके आचार के मूलतत्त्वों का शास्त्रीय अर्थात तात्विक विवेचन भगवद्गीता में संवाद-पद्धति से या पौराणिक रीति से किया गया है। अतएव भगवद्गीता के प्रतिपाद्य विषय को केवल कर्मयोग न कहकर कर्मयोगशास्त्र कहना ही अधिक उचित तथा प्रशस्त होगा; और, यही योग-शास्त्र शब्द भगवद्गीता के अध्याय-समाप्ति-सूचक संकल्प में आया है। जिन पश्चिमी पंडितों ने पारलौकिक दृष्टि को त्याग दिया है, या जो लोग उसे गौण मानते हैं, वे गीता में प्रतिपादित कर्मयोगशास्त्र को ही भिन्न भिन्न लौकिक नाम दिया करते हैं-जैसे सद्‌व्‍यवहार, सदाचारशास्त्र, नीतिशास्त्र, नीतिमीमांसा, नीतिशास्त्र के मूलत्त्व, कर्त्तव्यशास्त्र, कार्य-अकार्य-व्यवस्थिति, समाजधारणाशास्त्र इत्यादि। इन लोगों की नीतिमीमांसा की पद्धति भी लौकिक ही रहती है; इसी कारण से ऐसे पाश्‍चात्य पंडितों के ग्रन्थों का जिन्होंने अवलोकन किया है, उनमें से बहुतों की यह समझ हो जाती है, कि संस्कृत-साहित्य में सदाचरण या नीति के मूलतत्त्वों की चर्चा किसी ने नहीं कि है। वे कहने लगते हैं, कि “हमारे यहाँ जो कुछ गहन तत्त्वज्ञान है, वह सिर्फ हमारा वेदान्त ही है।

अच्छा; वर्तमान वेदान्त-ग्रन्थों को देखो, तो मालूम होगा कि वे सांसारिक कर्मों के विषय में प्रायः उदासीन हैं। ऐसी अवस्था में कर्मयोगशास्त्र का अथवा नीति का विचार कहाँ मिलेगा? यह विचार व्याकरण अथवा न्याय के ग्रन्थों में तो मिलने वाला है ही नहीं; और, स्मृति-ग्रन्थों में धर्माज्ञाओं के संग्रह के सिवा और कुछ भी नहीं है। इसलिये हमारे प्राचीन शास्त्रकार, मोक्ष ही के गूढ़ विचारों में निमग्‍न हो जाने के कारण, सदाचरण के या नीतिधर्म के मूलत्त्वों का विवेचन करना भूल गये!” परन्तु महाभारत और गीता को ध्यानपूर्वक पढ़ने से यह भ्रमपूर्ण समझ दूर हो जा सकती है। इतने पर भी कुछ लोग कहते हैं, कि महाभारत एक अत्यन्त विस्तीर्ण ग्रंथ है इसलिये उसको पढ़ कर पूर्णतया मनन करना बहुत कठिन है; और, गीता यद्यपि एक छोटा सा ग्रंथ है, तो भी उसमें सांप्रदायिक टीकाकारों के मतानुसार केवल मोक्षप्राप्ति ही का ज्ञान बतलाया गया है। परन्तु किसी ने इस बात को नहीं सोचा, एक संन्यास और कर्मयोग, दोनों मार्ग, हमारे यहाँ वैदिक काल से ही प्रचलित है; किसी भी समय समाज में संन्यासमार्गियों की अपेक्षा कर्मयोग ही के अनुयायियों की संख्या हजारों गुना हुआ करती है; और, पुराण-इतिहास आदि में जिन जिन कार्यशील महापुरुषों का अर्थात कर्मवीरों का वर्णन है। वे सब कर्मयोगमार्ग का ही अवलम्ब करने वाले थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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