गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
दूसरा प्रकरण
सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत्। “सच बोलना अच्छा है; परन्तु सत्य से भी अधिक ऐसा बोलना अच्छा है जिससे सब प्राणियों का हित हो; क्योंकि जिससे सब प्राणियो का अत्यंत हित होता है, वही हमारे मत से सत्य है। “यद्भूतहितं” पद को देख कर आधुनिक उपयोगितावादी अंग्रेजों का स्मरण करके यदि कोई उक्त वचन को प्रक्षिप्त कहना चाहें, तो उन्हें स्मरण रखना चाहिये कि यह वचन महाभारत के वन पर्व में, ब्राहाण और व्याध के संवाद में, दो तीन बार आया है। उनमें से एक जगह तो “अहिंसा सत्य वचनं सर्वभूत हितं परम्” पाठ है[1], ऐसा पाठ भेद किया गया है। सत्य प्रतिज्ञ युधिष्ठिर ने द्रोणाचार्य से, नरो वा कुंजरो वा, कह कर, उन्हें संदेह में क्यों डाल दिया? इसका कारण वही है जो उपर कहा गया है और कुछ नहीं। ऐसी ही और और बातों में भी यही नियम लगाया जाता है। हमारे शास्त्रों का यह कथन नहीं है कि झूठ बोल कर किसी खूनी की जान बचाई जावे। शास्त्रों में खून करने वाले आदमी के लिये देहांत प्रायश्चित अथवा वध दंड की सजा कही गई है; इसलिये वह सजा पाने अथवा वध करने ही योग्य है। सब शास्त्रकारों ने यही कहा है कि ऐसे समय अथवा इसी के समान और किसी समय, जो आदमी झूठी गवाही देता है वह अपने सात या अधिक पूर्वजों सहित नरक में जाता है[2]। परन्तु जब, कर्ण पर्व में वर्णित उक्त चोरों के दृष्टांत के समान, हमारे सच बोलने से निरपराधी आदमियों की जान जाने की आशंका हो, तो उस समय क्या करना चाहिये? ग्रीन नामक एक अंग्रेज ग्रंथ कार ने अपने, नीतिशास्त्र का उपोदघात, नामक ग्रंथ में लिखा है कि ऐसे मौकों पर नीतिशास्त्र मूक हो जाते हैं।यद्यपि मनु और याज्ञ वल्क्य ऐसे प्रसंगों की गणना सत्य अपवाद में करते हैं, तथापि यह भी उनके मत से गौण बात है। इसलिये अंत में उन्हीं ने अपवाद के लिये भी प्रायश्चित बतलाया है, तत्पावनाय निर्वाप्यश्ररूः सारस्वतो द्विजैः,[3]। कुछ बड़े अंग्रेजों ने, जिन्हें अहिंसा के अपवाद के विषय में आश्चर्य नहीं मालूम होता, हमारे शास्त्रकारों को सत्य के विषय में दोष देने का यत्न किया है। इसलिये यहाँ इस बात का उल्लेख किया जाता है कि सत्य के विषय में, प्रामाणिक ईसाई धर्मोपदेशक और नीति शास्त्र के अंग्रेज ग्रंथकार, क्या कहते हैं? फ्राईस्ट का शिष्य पॉल बाइबल में कहता है” यदि मेरे असत्य भाषण से प्रभु के सत्य की महिमा और बढ़ती है अर्थात ईसाई धर्म का अधिक प्रचार होता है तो इससे मैं पापी क्यों हो सकता हूँ” [4]ईसाई धर्म के इतिहासकार मिल मैन ने लिखा है कि प्राचीन ईसाई धर्मोपदेशक कई बार इसी तरह आचरण किया करते थे। यह बात सच है कि वर्तमान समय के नीतिशास्त्र, किसी को धोखा देकर या भुला कर धर्मभ्रष्ट करना, न्याय नहीं मानेंगे; परन्तु वे भी यह कहने को तैयार नहीं हैं कि सत्य धर्म अपवाद-रहित है। उदाहरणार्थ, यह देखिये कि सिजविक नाम के जिस पंडित का नीतिशास्त्र हमारे कालेजों में पढ़ाया जाता है, उसकी क्या राय है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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