गीता कर्म जिज्ञासा

बाल गंगाधर लोकमान्य तिलक द्वारा गीता भाष्य

गीता कर्म जिज्ञासा
बाल गंगाधर तिलक
लेखक बाल गंगाधर तिलक
मुख्य पात्र कृष्ण, अर्जुन
देश भारत
भाषा हिंदी, संस्कृत
विषय गीता
टिप्पणी बाल गंगाधर लोकमान्य तिलक द्वारा रचित गीता बहुप्रचलित है, इसके अनुकरण में 'शक्ति गीता', 'शिव गीता', अर्जुन गीता', हंस गीता आदि गीताओं की रचनाएं की गयी हैं।

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।[1]- गीता 4.16।

भगवद्गीता के आरम्भ में परस्पर–विरुद्ध दो धर्मों की उलझन में फँस जाने के कारण अर्जुन जिस तरह कर्त्तव्यमूढ़ हो गया था और उस पर जो मौक़ा आ पड़ा था, वह कुछ अपूर्व नहीं है। उन असमर्थ और अपना ही पेट पालने वाले लोगों की बात ही भिन्न है जो सन्न्यास लेकर और संसार को छोड़कर वन में चले जाते हैं अथवा जो कमज़ोरी के कारण जगत के अनेक अन्यायों को चुपचाप सह लिया करते हैं। परन्तु समाज में रहकर ही जिन महान तथा कार्यकर्त्ता पुरुषों को अपने सांसारिक कर्त्तव्यों का पालन धर्म तथा नीतिपूर्वक करना पड़ता है, उन्हीं पर ऐसे मौके अनेक बार आया करते हैं। युद्ध के आरंभ में ही अर्जुन को कर्त्तव्य–जिज्ञासा और मोह हुआ। ऐसा मोह युधिष्ठिर को युद्ध में मरे हुए अपने रिश्तेदारों का श्राद्ध करते समय हुआ था। उसके इस मोह को दूर करने के लिए ‘शांति–पर्व’ कहा गया है। कर्माकर्म संशय के ऐसे अनेक प्रसंग ढूढ़कर अथवा कल्पित करके उन पर बड़े–बड़े कवियों ने सुरस काव्य और उत्तम नाटक लिखे हैं।

उदाहरणार्थ, सुप्रसिद्ध अंग्रेज़ नाटककार शेक्सपीयर का हैमलेट नाटक ही ले लीजिए। डेनमार्क देश के प्राचीन राजपुत्र हैमलेट के चाचा ने, राज्यकर्त्ता अपने भाई हैमलेट के बाप को मार डाला, हैमलेट की माता को अपनी स्त्री बना लिया और राजगद्दी भी छीन ली। तब उस राजकुमार के मन में यह झगड़ा पैदा हुआ कि ऐसे पापी चाचा का वध करके पुत्र–धर्म के अनुसार अपने पिता के ऋण से मुक्त हो जाऊँ; अथवा अपने सगे चाचा, अपनी माता के पति और गद्दी पर बैठे हुए राजा पर दया करूं? इस मोह में पड़ जाने के कारण कोमल अंतःकरण के हैमलेट की कैसी दशा हुई। श्रीकृष्ण के समान कोई भी मार्ग–दर्शक और हितकर्त्ता न होने के कारण वह कैसे पागल हो गया और अंत में ‘जियें या मरें’ इसी बात की चिंता करते–करते उसका अंत कैसे हो गया, इत्यादि बातों का चित्र इस नाटक में बहुत अच्छी तरह से दिखाया गया है।

‘कोरियोलेनस’ नाम के दूसरे नाटक में भी इसी तरह एक और प्रसंग का वर्णन शेक्सपीयर ने किया है। रोम नगर में कोरियोलेनस नाम का एक शूर सरदार था। नगरवासियों ने उसको शहर से निकाल दिया। तब वह रोमन लोगों के शत्रुओं में जा मिला और उसने प्रतिज्ञा की कि ‘‘मैं तुम्हारा साथ कभी नहीं छोड़ूंगा’’। कुछ समय के बाद इन शत्रुओं की सहायता से उसने रोमन लोगों पर हमला किया और वह अपनी सेना लेकर रोम शहर के दरवाज़े के पास आ पहुँचा। उस समय रोम शहर की स्त्रियों ने कोरियोलेनस की स्त्री और माता को सामने करके मातृभूमि के सम्बन्ध में उसको उपदेश दिया। अंत में उसको रोम के शत्रुओं को दिए हुए वचन का भंग करना पड़ा। कर्त्तव्य–अकर्त्तव्य के मोह में फँस जाने के ऐसे और भी कई उदाहरण दुनिया के प्राचीन और आधुनिक इतिहास में पाए जाते हैं। परन्तु हम लोगों को इतनी दूर जाने की कोई अवश्यकता नहीं। हमारा महाभारत ग्रंथ ऐसे अनेकों उदाहरणों की एक बड़ी खान ही है। ग्रंथ के आरम्भ[2] में वर्णन करते हुए स्वंय व्यास जी ने उसको 'सूक्ष्मार्थन्याययुक्तं', 'अनेकसमयान्वितं' आदि विशेषण दिए गए हैं। उसमें धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र और मोक्षशास्त्र सब कुछ आ गया है। इतना ही नहीं, किंतु उसकी महिमा इस प्रकार गायी गयी है कि 'यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्कचित्' अर्थात; जो कुछ इसमें है वही और स्थानों में भी है, और जो इसमें नहीं है वह और किसी भी स्थान में नहीं है[3]। सारांश यह है कि इस संसार में अनेक कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं। ऐसे समय बड़े–बड़े प्राचीन पुरुषों ने कैसा बर्ताव किया, इसका सुलभ आख्यानों के द्वारा साधाराणजनों को बोध करा देने के लिए ही 'भारत' का 'महाभारत' हो गया है। नहीं तो सिर्फ़ 'भारतीय युद्ध' अथवा 'जय' नामक इतिहास का वर्णन करने के लिए अठारह पर्वों की कुछ आवश्यकता न थी।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पंडितों को भी इस विषय में मोह हो जाया करता है कि कर्म कौन–सा है, और अकर्म कौन–सा है। इस स्थान पर अकर्म शब्द को 'कर्म के अभाव' और 'बुरे कर्म' दोनों अर्थों में यथासम्भव लेना चाहिए।
  2. महाभारत, आदिपर्व 2
  3. महाभारत, आदिपर्व 62.53

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