गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 9
ब्रह्माजी के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति
ब्रह्माजी बोले- ‘मेघ की-सी कांति से युक्त विद्युत-वर्णन का वस्र धारण करने वाले, अमृत-तुल्य मीठी वाणी बोलने वाले, परात्पर, वंशीधारी, मयूर-पिच्छ को धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण को उनके भ्राता बलराम सहित नमस्कार है। श्रीकृष्ण (आप) साक्षात स्वयं पुरुषोत्तम, पूर्ण परमेश्वर, प्रकृति से अतीत श्री हरि हैं। हम देवता जिनके अंश और कलावतार हैं, जिनकी शक्ति से हम लोग क्रमश: विश्व की सृष्टि, पालन एवं संहार करते हैं, उन्हीं आपने साक्षात कृष्णचन्द्र के रूप में अवर्तीण होकर धराधाम पर नन्द का पुत्र होना स्वीकार किया है। आप प्रधान-प्रधान गोप-बालकों के साथ गोप वेष से वृन्दावन में गोचारण करते हुए विराज रहे हैं। करोड़ों कामदेव के समान रमणीय, तेजोमय, कौस्तुभधारी, श्यामवर्ण, पीतवस्त्रधारी, वंशीधर, व्रजेश, राधिकापति, निकुंजविहारी, परम सुन्दर श्री हरि को मैं प्रणाम करता हूँ। जो मेघ से निर्लिप्त आकाश के समान प्राणियों की देह में क्षेत्रज्ञ रूप से स्थित हैं, जो अधियज्ञ एवं चैत्यस्वरूप हैं, जो मायारहित हैं और जो निर्मल भक्ति तथा प्रबल वैराग्य आदि भावों से प्राप्त होते हैं, उन आदिदेव हरि की मैं वन्दना करता हूँ। सर्वज्ञ ! जिस समय मन में प्रबल रजोगुण उदय होता है, उसी समय मन संकल्प-विकल्प करने लगता है। संकल्प-विकल्प के वशीभूत मन में ही अभिमान की उत्पत्ति होती है और वही अभिमान धीरे-धीरे बुद्धि को विकृत कर देता है। क्षणस्थायी बिजली के समान, बदलते हुए ऋतुगुणों के समान, जल पर खींची गयी रेखा के समान, पिशाच के द्वारा उत्पन्न किये हुए अंगारों के समान और कपटी यात्री के प्रीति के समान जगत के सुख मिथ्या हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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