- महाभारत वनपर्व के 'तीर्थयात्रापर्व' के अंतर्गत अध्याय 85 में पुलस्त्य द्वारा गंगा का माहात्म्य के बारे में बताया गया है, जिसका उल्लेख निम्न प्रकार है[1]-
विषय सूची
गंगा स्नान का महत्त्व
पुलस्त्यजी कहते है- भारत! प्रयाग में भोगवती नाम से प्रसिद्ध वासुकि नाग का उत्तम तीर्थ है। जो वहाँ स्नान करता है, उसे अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। कुरुनन्दन! वहीं त्रिलोकविख्यात हंसप्रपतन नामक तीर्थ है और गंगा के तट पर दशाश्वमेधिक तीर्थ है। गंगा में जहाँ कहीं भी स्नान किया जाय, जब कुरुक्षेत्र के स्मान पुण्यदायिनी है।
कनखल में गंगा का स्नान विशेष माहात्म्य रखता है और प्रयाग में गंगा-स्नान का माहात्म्य सब की अपेक्षा बहुत अधिक है। जैसे अग्नि ईधन को जला देती है, उसी प्रकार सैकड़ों निषिद्ध कर्म करके भी यदि गंगा स्नान किया जाय तो उसका जल उन सब पापों को भस्म कर देता है। सत्ययुग में सभी तीर्थ पुण्यदायक होते हैं। त्रेता में पुष्कर का महत्त्व है। द्वापर में कुरुक्षेत्र विशेष पुण्यदायक है और कलियुग में गंगा की अधिक महिमा बतायी गयी है। पुष्कर में तप करे, महालय में दान दे, मलय पर्वत में अग्नि पर आरूढ हो और भृगुतुंग में उपवास करे। पुष्कर में, कुरुक्षेत्र में, गंगा में तथा प्रयाग आदि मध्यवर्ती तीर्थों में स्नान करके मनुष्य अपने आगे-पीछे की सात-सात पीढि़यों का उद्धार कर दता है। गंगाजी का नाम लिया जाय तो वह सारे पापों का धोबहाकर पवित्र कर देती है। दर्शन करने पर कल्याण प्रदान करती है तथा स्नान और जल पान करने पर वह मनुष्य की सात पीढि़यों को पावन बना देती है।
गंगाजल का महत्त्व
राजन! मनुष्य की हड्डी जब तक गंगाजल का स्पर्श करती है, तब तक वह पुरुष स्वर्गलोक में पूजित होता है। जितने पुण्य-तीर्थ हैं और जितने पुण्य मंदिर हैं, उन सबकी उपासना (सेवन) से पुण्यलाभ करके मनुष्य देवलोक का भागी होता है। गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं, भगवान विष्णु से बढ़कर कोई देवता नहीं और ब्राह्मणों से उत्तम कोई वर्ण नहीं है; ऐसा ब्रह्माजी का कथन है। महाराज! जहाँ गंगा बहती हैं, वही उत्तम देश है और वही तपोवन है। गंगा के तटवर्ती स्थान को सिद्धि क्षेत्र समझना चाहिये। इस सत्य सिद्धान्त को ब्राह्मण आदि द्विजों, साधु पुरुषों पुत्र, सुहृदों, शिष्यवर्ग तथा अपने अनुगत मनुष्यों के मान में कहना चाहिये। यह गंगा-महात्मय धन्य, पवित्र स्वर्गप्रद और परम उत्तम है। वह पुण्यदायक, रमणीय, पावन, उत्तम धर्मसंगत और श्रेष्ठ है। यह महर्षियों का गोपनीय रहस्य है। सब पापों का नाश करने वाला है। द्विजमण्डली में इस गंगा-माहात्मय का पाठ करके मनुष्य निर्मल हो स्वर्गलोक में पहुँच जाता है। यह तीर्थसमूहों की महिमा का वर्णन परम उत्तम, सम्पतिदायक, स्वर्गप्रद, पुण्यकारक, शत्रुओं का निवारण करने वाला, कल्याण कारक तथा मेधशक्तियों को उत्पन्न करने वाला है।। इस तीर्थ महात्मय का पाठ करने से पुत्रहीन को पुत्र प्राप्त होता है, धनहीन को धन मिलता है, राजा इस पृथ्वी पर विजय पाता है और सब वैश्य को व्यापार में धन मिलता है। शूद्र मनोवांछित वस्तुएं पाता है और ब्राह्मण इसका पाठ करे तो वह समस्त शास्त्रों का पारंगत विद्वान होता है। जो मनुष्य तीर्थों के इस पुण्य माहात्मय को प्रतिदिन सुनता है, वह पवित्र हो पहले के अनेक जन्मों की बातें याद कर लेता है और देहत्याग के पश्चात् स्वर्गलोक में आनंद का अनुभव करती है। भीष्म! मैंने यहाँ गम्य और अगम्य सभी प्रकार के तीर्थों का वर्णन किया है। सम्पूर्ण तीर्थों के दर्शन की इच्छा पूर्ण करने के लिये मनुष्य जहाँ जाना सम्भव न हो, उन अगम्य तीर्थों में मन से यात्रा करे अर्थात मन से उन तीर्थो का चिन्तन करे। वसुगण, साध्यगण, मरूदग्ण, दोनों अश्विनीकुमार तथा देवोपम महर्षियों ने भी पुण्य-लाभ की इच्छा से उन तीर्थों का स्नान किया है। उत्तम व्रत का पालन करने वाले कुरुनन्दन! इसी प्रकार तुम भी विधिपूर्वक शौच-संतोषादि नियमों का पालन करते और पुण्य से पुण्य को बढ़ाते हुए उन तीर्थों की यात्रा करो। आस्तिकता और वेदों के अनुशीलन से पहले अपने इन्द्रियों को पवित्र करके शास्त्रज्ञ साधु पुरुष ही उन तीर्थों को प्राप्त करते हैं। कुरुनन्दन जो ब्रह्मचर्य आदि व्रतों का पालन नहीं करता, जिसने अपने चित्त को वश में नहीं किया, जो अपवित्र आचार विचार वाला और चोर है, जिसकी बुद्धि वक्र है, ऐसा मनुष्य श्रद्धा न होने के कारण तीर्थों में स्नान नहीं करता। तुम धर्म और अर्थ के ज्ञात तथा नित्य सदाचार में तत्पर रहनेवाले हो।
धर्मज्ञ! तुमने पिता-पितामह-प्रपितामह ब्रह्मा आदि देवता तथा महर्षिगण इन सब को सदा स्वर्धम पालन से संतुष्ट किया है, अतः इन्द्र के समान तेजस्वी नरेश! तुम वसुओं के लोक में जाओगे। भीष्म! तुम्हें इस पृथ्वी पर विशाल एवं अक्षय कीर्ति प्राप्त होगी।
नारदजी का संवाद
नारदजी कहते हैं- युधिष्ठिर! ऐसा कहकर भीष्मजी की अनुमति ले संतुष्ट हुए भगवान पुलस्त्य मुनि प्रसन्न मन से वहीं अन्र्तधान हो गये।[2] कुरूश्रेष्ठ! शास्त्र के तात्त्विक अर्थ को जानने वाले भीष्मजी ने महर्षि पुलस्त्य के वचन से (तीर्थयात्रा के लिये) सारी पृथ्वी की परिक्रमा की। महाभाग! इस प्रकार यह सब पापों को दूर करने वाली महापुण्यमयी तीर्थयात्रा प्रतिष्ठानपुर (प्रयाग में) प्रतिष्ठित है। जो इस विधि से (तीर्थयात्रा के उद्देश्य से) सारी पृथ्वी की परिक्रमा करेगा, वह सौ अश्वमेधयज्ञों भी उत्तम पुण्यफल पाकर देहत्याग के पश्चात् उसका उपभोग करेगा। कुन्तीनन्दन! कुरुप्रवर भीष्म ने पहले जिस प्रकार तीर्थयात्राजनित पुण्य प्राप्त किया था, उससे भी आठ गुने उत्तम धर्म की उपलब्धि तुम्हें होगी। तुम अपने साथ सब ऋषियों को ले जाओगे, इसीलिये तुम्हं आठवा पुण्यफल प्राप्त होगा। भरतकुलभूषण कुरुनन्दन! इन सभी तीर्थो में राक्षसों के समुदाय फैले हुए हैं। तुम्हारे सिवा, दूसरे नरेशों ने वहाँ की यात्रा नहीं की है। जो मनुष्य सबेरे उठकर देवर्षि पुलस्त्य द्वारा वर्णित सम्पूर्ण तीर्थों के माहात्म्य से संयुक्त इस प्रसंग का पाठ करता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है।
महाराज! ऋषिप्रवर, वाल्मीकि, कश्यप, आत्रेय, कुण्डजठर, विश्वामित्र, गौतम, असित, देवल, मार्कण्डेय, गालव, भरद्वाज, वसिष्ठ, उद्दालक मुनि, शौनक तथा पुत्रसहित तपोधनप्रवर, व्यास, मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा और महातेजस्वी जाबालि -ये सभी महर्षि, जो तपस्या के धनी हैं, तुम्हारी प्रतिक्षा कर रहे हैं। इन सबके साथ उक्त तीर्थों में जाओ। महाराज! ये अमितेजस्वी महर्षि लोमश तुम्हारे पास आने वाला हैं, तुम्हें साथ लेकर यात्रा करो। धर्मज्ञ! इस यात्रा में मैं भी तुम्हारा साथ दूंगा। प्राचीन राजा महाभिष के समान तुम भी क्रमशः इन तीर्थों में भ्रमण करते हुए महान् यश प्राप्त करोगे।
नृपश्रेष्ठ! जैसे धमात्मा ययाति तथा राजा पुरूरवा थे वैसे ही तुम भी अपने धर्म से सुशोभित हो रहे हो। जैसे राजा भगीरथ तथा विख्यात महाराज श्रीराम हो गये हैं, उसी प्रकार तुम भी सूर्य की भाँति सब राजाओं से अधिक शोभा पा रहे हो। महाराज! जैसे मनु, जैसे इक्ष्वाकु, जैसे महायशस्वी पूरू और जैसे वेननन्दन पृथु हो गये हैं, वैसी ही तुम्हारी भी ख्याति है। पूर्वकाल में वृत्रासुरविनाशक देवराज इन्द्र ने जैसे सब शत्रुओं का संहार करते हुए निश्चिंत होकर तीनों लोको का पालन किया था, उसी प्रकार तुम भी शत्रुओं का नाश करके प्रजा का पालन करोगे। कमलनयन नरेश! तुम अपने धर्म से जीती हुई पृथ्वी पर अधिकार प्राप्त करके स्वधर्मपालन द्वारा कीर्तवीर्य अर्जुन के समान विख्यात होओगे।।
वैशम्पायनजी कहते हैं-महाराज जनमेजय! देवर्षि नारद इस प्रकार राजा युधिष्ठिर को आश्वासन देकर उनकी आज्ञा ले वहीं अन्तर्धान हो गये। धर्मात्मा युधिष्ठिर ने भी इसी विषय का चिन्तन करते हुए अपने पास रहने वाले महर्षियों से तीर्थ यात्रा सम्बन्धी महान पुण्य के विषय में निवेदन किया।[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 85 श्लोक 67-93
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 85 श्लोक 94-112
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 85 श्लोक 113-132
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| भीमसेन को आश्वासन देकर हनुमान का अन्तर्धान होना
| भीमसेन का सौगन्धिक वन में पहुँचना
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पांडवों का नरनारायणाश्रम से वृषपर्वा के जाना
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निवातकवच युद्ध पर्व
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| अर्जुन का युधिष्ठिर से स्वर्गलोक में प्राप्त अपनी अस्त्रविद्या का कथन
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| अर्जुन और निवातकवचों का युद्ध
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| अर्जुन द्वारा निवातकवचों का वध
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| युधिष्ठिर की अर्जुन से दिव्यास्त्र-दर्शन की इच्छा
| नारद आदि का अर्जुन को दिव्यास्त्र प्रदर्शन से रोकना
आजगरपर्व
भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत
| पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान
| पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास
| पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश
| द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना
| भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना
| भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप
| युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज
| युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना
| सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश
| पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन
| तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य
| ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा
| तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद
| वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा
| चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन
| प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन
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| मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप
| बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना
| मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन
| युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन
| कल्कि अवतार का वर्णन
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| सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र
| इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा
| नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन
| इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा
| मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन
| मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन
| उत्तंक मुनि की कथा
| उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह
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| विष्णु द्वारा मधु-कैटभ का वध
| धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति
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| धर्मव्याध द्वारा इन्द्रियनिग्रह का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा तीन गुणों के स्वरूप तथा फल का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा प्राणवायु की स्थिति का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा परमात्म-साक्षात्कार के उपाय
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश
| धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना
| धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार
| अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना
| अंगिरा की संतति का वर्णन
| बृहस्पति की संतति का वर्णन
| पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति
| पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन
| अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन
| सह अग्नि का जल में प्रवेश
| अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य
| इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार
| इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना
| अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन
| स्कन्द की उत्पत्ति
| स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण
| विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना
| अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना
| इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान
| स्कन्द के पार्षदों का वर्णन
| स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप
| स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक
| स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह
| कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति
| मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन
| स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार
| रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा
| देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध
| कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा
| द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा
| सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार
| शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना
| दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना
| दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति
| द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद
| कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय
| गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण
| कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश
| पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध
| पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय
| चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा
| दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन
| दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना
| दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश
| कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय
| दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना
| दैत्यों का दुर्योधन को समझाना
| दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान
| भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव
| कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान
| कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय
| कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार
| दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी
| दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति
| कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा
| युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन
| व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन
| दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा
| महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना
| देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन
| व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार
| दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना
| द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना
| कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना
| जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना
| कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना
| द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर
| जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद
| जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण
| पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना
| द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन
| पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार
| युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना
| भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना
| शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना
| राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन
| रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति
| कुबेर का रावण को शाप देना
| देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना
| राम के राज्याभिषेक की तैयारी
| राम का वन को प्रस्थान
| भरत की चित्रकूट यात्रा
| राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप
| राम द्वारा मारीच का वध
| रावण द्वारा सीता का अपहरण
| रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार
| राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध
| राम और सुग्रीव की मित्रता
| राम द्वारा बाली का वध
| अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन
| रावण और सीता का संवाद
| राम का सुग्रीव पर कोप
| सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना
| हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना
| वानर सेना का संगठन
| नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण
| विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश
| अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना
| राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम
| राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध
| प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध
| रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना
| कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध
| इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा
| राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना
| लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध
| रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना
| राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध
| राम का सीता के प्रति संदेह
| देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन
| राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक
| मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति
| सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण
| सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय
| सावित्री और सत्यवान का विवाह
| सावित्री की व्रतचर्या
| सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना
| सावित्री और यम का संवाद
| यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना
| सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप
| राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता
| सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन
| द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना
| कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना
| सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश
| कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय
| कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन
| कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना
| कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या
| कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश
| कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन
| कुन्ती-सूर्य संवाद
| सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन
| कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप
| अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति
| कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन
| कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति
| इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग
| युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश
| नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना
| यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद
| यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर
| युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना
| यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना
| युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना
| भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श
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