कृष्ण बलराम का यज्ञोपवीत तथा गुरुकुल प्रवेश

'श्रीमद्भागवत महापुराण'[1] के अनुसार- श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि माता-पिता को मेरे ऐश्वर्य का, मेरे भगवद्भाव का ज्ञान हो गया है, परन्तु इन्हें ऐसा ज्ञान होना ठीक नहीं[2], ऐसा सोचकर उन्होंने उन पर अपनी वह योगमाया फैला दी, जो उनके स्वजनों को मुग्ध रखकर उनकी लीला में सहायक होती है। यदुवंशशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण बड़े भाई बलराम के साथ अपने माता-पिता के पास जाकर आदरपूर्वक और विनय से झुककर "मेरी अम्मा! मेरे पिताजी!" इन शब्दों से उन्हें प्रसन्न करते हुए कहने लगे- "पिताजी! माताजी! हम आपके पुत्र हैं और आप हमारे लिये सर्वदा उत्कण्ठित रहे हैं, फिर भी आप हमारे बाल्य, पौगण्ड और किशोर-अवस्था का सुख हमसे नहीं पा सके। दुर्दैववश हम लोगों को आपके पास रहने का सौभाग्य ही नहीं मिला। इसी से बालकों को माता-पिता के घर में रहकर जो लाड़-प्यार का सुख मिलता है, वह हमें भी नहीं मिल सका। पिता और माता ही इस शरीर को जन्म देते हैं और इसका लालन-पालन करते हैं। तब कहीं जाकर यह शरीर धर्म, अर्थ, काम अथवा मोक्ष की प्राप्ति का साधन बनता है। यदि कोई मनुष्य सौ वर्ष तक जीकर माता और पिता की सेवा करता रहे, तब भी वह उनके उपकार से उऋण नहीं हो सकता। जो पुत्र सामर्थ्य रहते भी अपने माँ-बाप की शरीर और धन से सेवा नहीं करता, उसके मरने पर यमदूत उसे उसके अपने शरीर का मांस खिलाते हैं। जो पुरुष समर्थ होकर भी बूढ़े माता-पिता, सती पत्नी, बालक, सन्तान, गुरु, ब्राह्मण और शरणागत का भरण-पोषण नहीं करता, वह जीता हुआ भी मुर्दे के समान ही है। पिताजी! हमारे इतने दिन व्यर्थ ही बीत गये। क्योंकि कंस के भय से सदा उद्विग्नचित रहने कारण हम आपकी सेवा करने में असमर्थ रहे। मेरी माँ और मेरे पिताजी! आप दोनों हमें क्षमा करें। हाय! दुष्ट कंस ने आपको इतने-इतने कष्ट दिये, परन्तु हम परतन्त्र रहने के कारण आपकी कोई सेवा-शुश्रूषा न कर सके।"

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित! अपनी लीला से मनुष्य बने हुए विश्वात्मा श्रीहरि की इस वाणी से मोहित हो देवकी-वसुदेव ने उन्हें गोद में उठा लिया और हृदय से चिपकाकर परमानन्द प्राप्त किया। राजन! वे स्नेह-पाश से बँधकर पूर्णतः मोहित हो गये और आँसुओ की धारा से अभिषेक करने लगे। यहाँ तक कि आँसुओं के कारण गला रूँध जाने से वे कुछ बोल भी न सके। देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार अपने माता-पिता को सान्त्वना देकर अपने नाना उग्रसेन को यदुवंशियों का राजा बना दिया और उनसे कहा- "महाराज! हम आपकी प्रजा हैं। आप हम लोगों पर शासन कीजिये। राजा ययाति का शाप होने के कारण यदुवंशी राजसिंहसन पर नहीं बैठ सकते;[3] जब मैं सेवक बनकर आपकी सेवा करता रहूँगा, तब बड़े-बड़े देवता भी सिर झुकाकर आपको भेंट देंगे।" दूसरे नरपतियों के बारे में तो कहना ही क्या है।

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण ही सारे विश्व के विधाता हैं। उन्होंने, जो कंस के भय से व्याकुल होकर इधर-उधर भाग गये थे, उन यदु, वृष्णि, अन्धक, मधु, दशार्ह और कुकुर आदि वंशों में उत्पन्न सजातीय सम्बन्धियों को ढूँढ-ढूँढ़कर बुलवाया। उन्हें घर से बाहर रहने में बड़ा क्लेश उठाना पड़ा था। भगवान ने उनका सत्कार किया, सान्त्वना दी और उन्हें ख़ूब धन-सम्पत्ति देकर तृप्त किया तथा अपने-अपने घरों में बसा दिया। अब सारे-के-सारे यदुवंशी भगवान श्रीकृष्ण तथा बलरामजी के बाहुबल से सुरक्षित थे। उनकी कृपा से उन्हें किसी प्रकार की व्यथा नहीं थी, दुःख नहीं था। उनके सारे मनोरथ सफल हो गये थे। वे कृतार्थ हो गये थे। अब वे अपने-अपने घरों में आनन्द से विहार करने लगे। भगवान श्रीकृष्ण का वदन आनन्द का सदन है। वह नित्य प्रफुल्लित, कभी न कुम्हलाने वाला कमल है। उसका सौन्दर्य अपार है। सदय हास और चितवन उस पर सदा नाचती रहती है। यदुवंशी दिन-प्रतिदिन उसका दर्शन करके आनन्दमग्न रहते। मथुरा के वृद्ध पुरुष भी युवकों के समान अत्यन्त बलवान और उत्साही हो गये थे; क्योंकि वे अपने नेत्रों के दोनों से बारंबार भगवान के मुखारविन्द का अमृतमय मकरन्द-रस पान करते रहते थे।

प्रिय परीक्षित! अब देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी दोनों ही नन्दबाबा के पास आये और गले लगने के बाद उनसे कहने लगे- "पिताजी! आपने और माँ यशोदा ने बड़े स्नेह और दुलार से हमारा लालन-पालन किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि माता-पिता सन्तान पर अपने शरीर से भी अधिक स्नेह करते हैं। जिन्हें पालन-पोषण न कर सकने के कारण स्वजन-सम्बन्धियों ने त्याग दिया है, उन बालकों को जो लोग अपने पुत्र के समान लाड़-प्यार से पालते हैं, वे ही वास्तव में उनके माँ-बाप हैं। पिताजी! अब आप लोग ब्रज में जाइये। इसमें सन्देह नहीं कि हमारे बिना वात्सल्य-स्नेह के कारण आप लोगों को बहुत दुःख होगा। यहाँ के सुहृद्-सम्बन्धियों को सुखी करके हम आप लोगों से मिलने के लिये आयेंगे।" भगवान श्रीकृष्ण ने नन्दबाबा और दूसरे ब्रजवासियों को इस प्रकार समझा-बुझाकर बड़े आदर के साथ वस्त्र, आभूषण और अनेक धातुओं के बने बरतन आदि देकर उनका सत्कार किया। भगवान की बात सुनकर नन्दबाबा ने प्रेम से अधीर होकर दोनों भाइयों को गले लगा लिया और फिर नेत्रों में आँसू भरकर गोपों के साथ ब्रज के लिये प्रस्थान किया।

हे राजन! इसके बाद वसुदेवजी ने अपने पुरोहित गर्गाचार्य तथा दूसरे ब्राह्मणों से दोनों पुत्रों का विधिपूर्वक द्विजाति-समुचित यज्ञोपवीत संस्कार करवाया। उन्होंने विविध प्रकार के वस्त्र और आभूषणों से ब्राह्मणों का सत्कार करके उन्हें बहुत-सी दक्षिणा तथा बछड़ों वाली गौएँ दीं। सभी गौएँ गले में सोने की माला पहले हुए थीं तथा और भी बहुत से आभूषणों एवं रेशमी वस्त्रों की मालाओं से विभूषित थीं। महामती वसुदेवजी ने भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी के जन्म-नक्षत्र में जितनी गौएँ मन-ही-मन संकल्प करके दी थीं, उन्हें पहले कंस ने अन्याय से छीन लिया था। अब उनका स्मरण करके उन्होंने ब्राह्मणों को वे फिर से दीं। इस प्रकार यदुवंश के आचार्य गर्गजी से संस्कार कराकर बलरामजी और श्रीकृष्ण द्विजत्व को प्राप्त हुए। उनका ब्रह्मचर्य अखण्ड तो था ही, अब उन्होंने गायत्रीपूर्वक अध्ययन करने के लिये उसे नियमतः स्वीकार किया। श्रीकृष्ण और बलराम जगत के एकमात्र स्वामी हैं। सर्वज्ञ हैं। सभी विद्याएँ उन्हीं से निकली हैं। उनका निर्मल ज्ञान स्वतःसिद्ध है। फिर भी उन्होंने मनुष्य-सी लीला करके उसे छिपा रखा था।

अब वे दोनों गुरुकुल में निवास करने की इच्छा से कश्यपगोत्री सान्दीपनि मुनि के पास गये, जो अवन्तीपुर (उज्जैन) में रहते थे। वे दोनों भाई विधिपूर्वक गुरुजी के पास रहने लगे। उस समय वे बड़े ही सुसंयत, अपनी चेष्टाओं को सर्वथा नियमित रखे हुए थे। गुरुजी तो उनका आदर करते ही थे, भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी भी गुरु की उत्तम सेवा कैसे करनी चाहिये, इसका आदर्श लोगों के सामने रखते हुए बड़ी भक्ति से इष्टदेव के समान उनकी सेवा करने लगे। गुरुवर सान्दीपनिजी उनकी शुद्धभाव से युक्त सेवा से बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने दोनों भाइयों को छहों अंग और उपनिषदों के सहित सम्पूर्ण वेदों की शिक्षा दी। इनके सिवा मन्त्र और देवताओं के ज्ञान के साथ धनुर्वेद, मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्र, मीमांसा आदि, वेदों का तात्पर्य बतलाने वाले शास्त्र, तर्कविद्या (न्यायशास्त्र) आदि की भी शिक्षा दी। साथ ही सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्विध और आश्रय-इन छः भेदों से युक्त राजनीति का भी अध्ययन कराया।

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण और बलराम सारी विद्याओं के प्रवर्तक हैं। इस समय केवल श्रेष्ठ मनुष्य का-सा व्यवहार करते हुए ही वे अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने गुरुजी के केवल एक बार कहने मात्र से सारी विद्याएँ सीख लीं। केवल चौंसठ दिन-रात में ही संयमीशिरोमणि दोनों भाइयों ने चौंसठो कलाओं का[4] ज्ञान प्राप्त कर लिया। इस प्रकार अध्ययन समाप्त होने पर उन्होंने सान्दिपनी मुनि से प्रार्थना की कि "आपकी जो इच्छा हो, गुरु-दक्षिणा माँग लें।" महाराज! सान्दिपनी मुनि ने उनकी अद्भुत महिमा और अलौकिक बुद्धि का अनुभव कर लिया था। इसलिये उन्होंने अपनी पत्नी से सलाह करके यह गुरुदक्षिणा माँगी कि "प्रभास क्षेत्र में हमारा बालक समुद्र में डूबकर मर गया था, उसे तुम लोग ला दो।" बलरामजी और श्रीकृष्ण का पराक्रम अनन्त था। दोनों ही महारथी थे। उन्होंने ‘बहुत अच्छा’ कहकर गुरुजी की आज्ञा स्वीकार की और रथ पर सवार होकर प्रभास क्षेत्र में गये। वे समुद्र तट पर जाकर क्षणभर बैठे रहे। उस समय यह जानकर कि ये साक्षात परमेश्वर हैं, अनेक प्रकार की पूजा-सामग्री लेकर समुद्र उनके सामने उपस्थित हुआ। भगवान ने समुद्र से कहा- "समुद्र! तुम यहाँ अपनी बड़ी-बड़ी तरंगों से हमारे जिस गुरुपुत्र को बहा ले गये थे, उसे लाकर शीघ्र हमें दो।"

मनुष्य वेषधारी समुद्र ने कहा- "देवाधिदेव श्रीकृष्ण! मैंने उस बालक को नहीं लिया है। मेरे जल में पंचजन नाम का एक बड़ा भारी दैत्य जाति का असुर शंख के रूप में रहता है। अवश्य ही उसी ने वह बालक चुरा लिया होगा।" समुद्र की बात सुनकर भगवान तुरंत ही जल में जा घुसे और शंखासुर को मार डाला। परन्तु वह बालक उसके पेट में नहीं मिला। तब उसके शरीर का शंख लेकर भगवान रथ पर चले आये। वहाँ से बलरामजी के साथ श्रीकृष्ण ने यमराज की प्रिय पुरी संयमी में जाकर अपना शंख बजाया। शंख का शब्द सुनकर सारी प्रजा का शासन करने वाले यमराज ने उनका स्वागत किया और भक्तिभाव से भरकर विधिपूर्वक उनकी बहुत बड़ी पूजा की। उन्होंने नम्रता से झुककर समस्त प्राणियों के हृदय में विराजमान सच्चिदानंद-स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण से कहा- "लीला से ही मनुष्य बने हुए सर्वव्यापक परमेश्वर! मैं आप दोनों की क्या सेवा करूँ?।"

श्रीभगवान ने कहा- "यमराज! यहाँ अपने कर्मबन्धन के अनुसार मेरा गुरुपुत्र लाया गया है। तुम मेरी आज्ञा स्वीकार करो और उसके कर्म पर ध्यान न देकर उसे मेरे पास ले आओ।" यमराज ने ‘जो आज्ञा’ कहकर भगवान का आदेश स्वीकार किया और उनका गुरुपुत्र ला दिया। तब यदुवंशशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी उस बालक को लेकर उज्जैन लौट आये और उसे अपने गुरुदेव को सौंपकर कहा कि "आप और जो कुछ चाहें, माँग लें।"

गुरुजी ने कहा- "बेटा! तुम दोनों ने भलीभाँति गुरु दक्षिणा दी। अब और क्या चाहिये? जो तुम्हारे जैसे पुरुषोत्तमों का गुरु है, उसका कौन-सा मनोरथ अपूर्ण रह सकता है? वीरों! अब तुम दोनों अपने घर जाओ। तुम्हें लोकों को पवित्र करने वाली कीर्ति प्राप्त हो। तुम्हारी पढ़ी हुई विद्या इस लोक और परलोक में सदा नवीन बनी रहे, कभी विस्मृत न हो।" बेटा परीक्षित! फिर गुरुजी से आज्ञा लेकर वायु के समान वेग और मेघ के समान शब्द वाले रथ पर सवार होकर दोनों भाई मथुरा लौट आये। मथुरा की प्रजा बहुत दिनों तक श्रीकृष्ण और बलराम को न देखने से अत्यन्त दुःखी हो रही थी। अब उन्हें आया हुआ देख सब-के-सब परमानन्द में मग्न हो गये, मानो खोया हुआ धन मिल गया हो।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दशम स्कन्ध, अध्याय 45, श्लोक 1-50
  2. इससे तो ये पुत्र-स्नेह का सुख नहीं पा सकते।
  3. परन्तु मेरी ऐसी ही इच्छा है, इसलिये आपको दोष न होगा।
  4. 'चौंसठ कलाएँ' ये हैं- 1. गान विद्या, 2. वाद्य- भाँति-भाँति के बाजे बजाना, 3. नृत्य, 4. नाट्य, 5. चित्रकारी, 6. बेल-बूटे बनाना, 7. चावल और पुष्पादि से पूजा के उपहार की रचना करना, 8. फूलों की सेज बनाना, 9. दाँत, वस्त्र और अंगों को रँगना, 10. मणियों की फर्श बनाना, 11. शय्या-रचना, 12. जल को बाँध देना, 13. विचित्र सिद्धियाँ दिखलाना, 14. हार-माला आदि बनाना, 15. कान और चोटी के फूलों के गहने बनाना, 16. कपड़े और गहने बनाना, 17. फूलों के आभूषणों से श्रृंगार करना, 18. कानों के पत्तों की रचना करना, 19. सुगन्धित वस्तुएँ- इत्र, तैल आदि बनाना, 20. इन्द्रजाल-जादूगरी, 21. चाहे जैसा वेष धारण कर लेना, 22. हाथ की फुर्ती के काम, 23. तरह-तरह की खाने की वस्तुएँ बनाना, 24. तरह-तरह के पीने के पदार्थ बनाना, 25. सुई का काम, 26. कठपुतली बनाना, नचाना, 27. पहेली, 28. प्रतिमा आदि बनाना, 29. कूटनीति, 30. ग्रन्थों के पढ़ाने की चातुरी, 31. नाटक, आख्यायिका आदि की रचना करना, 32. समस्या पूर्ति करना, 33. पट्टी, बेंत, बाण आदि बनाना, 34. गलीचे, दरी आदि बनाना, 35. बढ़ई की कारीगरी, 36. गृह आदि बनाने की कारीगरी, 37. सोने, चाँदी आदि धातु तथा हीरे-पन्ने आदि रत्नों की परीक्षा, 38. सोना-चाँदी आदि बना लेना, 39. मणियों के रंग को पहचानना, 40. खानों की पहचान, 41. वृक्षों की चिकित्सा, 42. भेड़ा, मुर्गा, बटेर आदि को लड़ाने की रीति, 43. तोता-मैना आदि की बोलियाँ बोलना, 44. उच्चाटन की विधि, 45. केशों की सफाई का कौशल, 46. मुट्ठी की चीज या मन की बात बता देना, 47. म्लेच्छ-काव्यों का समझ लेना, 48. विभिन्न देशों की भाषा ज्ञान, 49. शकुन-अपशकुन जानना, प्रश्नों के उत्तर में शुभाशुभ बतलाना, 50. नाना प्रकार के मातृकायन्त्र बनाना, 51. रत्नों को नाना प्रकार के आकारों में काटना, 52. सांकेतिक भाषा बनाना, 53. मन में कटकरचना करना, 54. नयी-नयी बातें निकालना, 55. छाल से काम निकालना, 56. समस्त केशों का ज्ञान, 57. समस्त छन्दों का ज्ञान, 58. वस्त्रों को छिपाने या बदलने की विद्या, 59. द्यूत क्रीड़ा, 60. दूर के मनुष्य या वस्तुओं का आकर्षण कर लेना, 61. बालकों के खेल, 62. मन्त्र विद्या, 63. विजय प्राप्त कराने वाली विद्या, 64. वेताल आदि को वश में रखने की विद्या।

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