कृष्ण का मथुरा में प्रवेश

'श्रीमद्भागवत महापुराण'[1] के अनुसार- श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित! अक्रूरजी इस प्रकार स्तुति कर रहे थे। उन्हें भगवान श्रीकृष्ण ने जल में अपने दिव्यरूप के दर्शन कराये और फिर उसे छिपा लिया, ठीक वैसे ही जैसे कोई नट अभिनय में कोई रूप दिखाकर फिर उसे परदे की ओट में छिपा दे। जब अक्रूरजी ने देखा कि भगवान का वह दिव्यरूप अन्तर्धान हो गया, तब वे जल से बाहर निकल आये और फिर जल्दी-जल्दी सारे आवश्यक कर्म समाप्त करके रथ पर चले आये। उस समय वे बहुत ही विस्मित हो रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे पूछा- "चाचाजी! आपने पृथ्वी, आकाश या जल में कोई अद्भुत वस्तु देखी है क्या? क्योंकि आपकी आकृति देखने से ऐसा ही जान पड़ता है।"

अक्रूरजी ने कहा- "प्रभो! पृथ्वी, आकाश या जल में और सारे जगत में जितने भी अद्भुत पदार्थ हैं, वे सब आप में ही हैं। क्योंकि आप विश्वरूप हैं। जब मैं आपको ही देख रहा हूँ, तब ऐसी कौन-सी अद्भुत वस्तु रह जाती है, जो मैंने न देखी हो। भगवन! जितनी भी वस्तुएँ हैं, वे पृथ्वी में हों या जल अथवा आकाश में-सब-की-सब जिनमें हैं, उन्हीं आपको मैं देख रहा हूँ। फिर भला, मैंने यहाँ अद्भुत वस्तु कौन-सी देखी? गान्दिनीनन्दन अक्रूरजी ने यह कहकर रथ हाँक दिया और भगवान श्रीकृष्ण तथा बलरामजी को लेकर दिन ढलते-ढलते वे मथुरापुरी जा पहुँचे। परीक्षित! मार्ग में स्थान-स्थान पर गाँवों के लोग मिलने के लिये आते और भगवान श्रीकृष्ण तथा बलरामजी को देखकर आनन्दमग्न हो जाते। वे एकटक उनकी ओर देखने लगते, अपनी दृष्टि हटा न पाते। नन्दबाबा आदि ब्रजवासी तो पहले से ही वहाँ पहुँच गये थे, और मथुरापूरी के बाहरी उपवन में रुककर उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। उनके पास पहुँचकर जगदीश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने विनीतभाव से खड़े अक्रूरजी का हाथ अपने हाथ में लेकर मुसकराते हुए कहा- "चाचाजी! आप रथ लेकर पहले मथुरापुरी में प्रवेश कीजिये और अपने घर जाइये। हम लोग पहले यहाँ उतरकर फिर नगर देखने के लिये आयेंगें।"

अक्रूरजी ने कहा- "प्रभो! आप दोनों के बिना मैं मथुरा में नहीं जा सकता। स्वामी! मैं आपका भक्त हूँ। भक्तवत्सल प्रभो! आप मुझे मत छोडिये। भगवन! आइये, चलें। मेरे परम हितैषी और सच्चे सुहृद भगवन! आप बलरामजी, ग्वालबालों तथा नन्दरायजी आदि आत्मीयों के साथ चलकर हमारा घर सनाथ कीजिये। हम गृहस्थ हैं। आप अपने चरणों की धूलि से हमारा घर पवित्र कीजिये। आपके चरणों की धोवन[2] से अग्नि, देवता, पितर-सब-के-सब तृप्त हो जाते हैं। प्रभो! आपके युगल चरणों को पखारकर महात्मा बलि ने वह यश प्राप्त किया, जिसका गान सन्त पुरुष करते हैं। केवल यश ही नहीं, उन्हें अतुलनीय ऐश्वर्य तथा वह गति प्राप्त हुई, जो अनन्य प्रेमी भक्तों को प्राप्त होती है। आपके चरणोंदक-गंगाजी ने तीनों लोक पवित्र कर दिये। सचमुच वे मूर्तिमान पवित्रता हैं। उन्हीं के स्पर्श से सगर के पुत्रों को सद्गति प्राप्त हुई और उसी जल को स्वयं भगवान शंकर ने अपने सिर पर धारण किया। यदुवंशशिरोमणे! आप देवताओं के भी आराध्यदेव हैं। जगत के स्वामी हैं। आपके गुण और लीलाओं का श्रवण तथा कीर्तन बड़ा ही मंगलकारी है। उत्तम पुरुष आपके गुणों का कीर्तन करते रहते हैं। नारायण! मैं आपको नमस्कार करता हूँ।"

श्रीभगवान ने कहा- "चाचाजी! मैं दाऊ भैया के साथ आपके घर आऊँगा और पहले इस यदुवंशियों के द्रोही कंस को मारकर तब अपने सभी सुहृद-स्वजनों का प्रिय करूँगा।"

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित! भगवान के इस प्रकार कहने पर अक्रूरजी कुछ अनमने-से हो गये। उन्होंने पुरी में प्रवेश करके कंस से श्रीकृष्ण और बलराम के आने का समाचार निवेदन किया और फिर अपने घर गये। दूसरे दिन तीसरे पहर बलरामजी और ग्वालबालों के साथ भगवान श्रीकृष्ण ने मथुरापुरी की देखने के लिये नगर में प्रवेश किया। भगवान ने देखा कि नगर के परकोटे में स्फटिकमणि[3] के बहुत ऊँचे-ऊँचे गोपुर[4] तथा घरों में भी बड़े-बड़े फाटक बने हुए हैं। उनमें सोने के बड़े-बड़े किंवाड़ लगे हैं और सोने के ही तोरण[5] बने हुए हैं। नगर के चारों ओर ताँबें और पीतल की चाहरदीवारी बनी हुई है। खाई के कारण और कहीं से उस नगर में प्रवेश करना बहुत कठिन है। स्थान-स्थान पर सुन्दर-सुन्दर उद्यान और रमणीय उपवन[6] शोभायमान हैं। सुवर्ण से सजे हुए चौराहे, धनियों के महल, उन्हीं के साथ के बगीचे, कारीगरों के बैठने के स्थान या प्रजावर्ग के सभा-भवन और साधारण लोगों के निवासगृह नगर की शोभा बढ़ा रहे हैं। वैदूर्य, हीरे, स्फटिक, नीलम, मूँगे, मोती और पन्ने आदि से जड़े हुए छज्जे, चबूतरे, झरोखे एवं फर्श आदि जगमगा रहे हैं। उन पर बैठे हुए कबूतर, मोर आदि पक्षी भाँति-भाँति बोली बोल रहे हैं। सड़क, बाज़ार, गली एवं चौराहों पर खूब छिड़काव किया गया है। स्थान-स्थान पर फूलों के गजरे, जवारे[7], खील और चावल बिखरे हुए हैं। घरों के दरवाज़ों पर दही और चन्दन आदि से चर्चित जल से भरे हुए कलश रखे हैं और वे फूल, दीपक, नयी-नयी कोंपलें फल सहित केले और सुपारी के वृक्ष, छोटी-छोटी झंडियों और रेशमी वस्त्रों से भलीभाँति सजाए हुए हैं।

परीक्षित! वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी ने ग्वालबालों के साथ राजपथ से मथुरा नगरी में प्रवेश किया। उस समय नगर की नारियाँ बड़ी उत्सुकता से उन्हें देखने के लिये झटपट अटारियों पर चढ़ गयीं। किसी-किसी ने जल्दी के कारण अपने वस्त्र और गहने पहन लिये। किसी ने भूल से कुण्डल, कंगन आदि जोड़ से पहने जाने वाले आभूषणों में से एक ही पहना और चल पड़ी। कोई एक ही कान में पत्र नामक आभूषण धारण कर पायी थी तो किसी ने एक ही पाँव में पायजेब पहन रखा था। कोई एक ही आँख में अंजन आँज पायी थी और दूसरी में बिना आँजे ही चल पड़ी। कई रमणियाँ तो भोजन कर रही थीं, वे हाथ का कौर फेंककर चल पड़ीं। सबका मन उत्साह और आनन्द से भर रहा था। कोई-कोई उबटन लगवा रही थीं, वे बिना स्नान किये ही दौड़ पड़ीं। जो सो रही थीं, वे कोलाहल सुनकर उठ खड़ी हुईं और उसी अवस्था में दौड़ चलीं। जो माताएँ बच्चों को दूध पिला रही थीं, वे उन्हें गोद से हटाकर भगवान श्रीकृष्ण को देखने के लिये चल पड़ीं। कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण मतवाले गजराज के समान बड़ी मस्ती से चल रहे थे। उन्होंने लक्ष्मी को भी आनन्दित करने वाले अपने श्यामसुन्दर विग्रह से नगरनारियों के नेत्रों को बड़ा आनन्द दिया और अपनी विलासपूर्ण प्रगल्भ हँसी तथा प्रेमभरी चितवन से उनके मन चुरा लिये। मथुरा की स्त्रियाँ बहुत दिनों से भगवान श्रीकृष्ण की अद्भुत लीलाएँ सुनती आ रही थीं। उनके चित्त-चिरकाल से श्रीकृष्ण के लिये चंचल, व्याकुल हो रहे थे। आज उन्होंने उन्हें देखा। भगवान श्रीकृष्ण ने भी अपनी प्रेमभरी चितवन और मन्द मुस्कान की सुधा से सींचकर उनका सम्मान किया। परीक्षित! उन स्त्रियों ने नेत्रों के द्वारा भगवान को अपने हृदय में ले जाकर उनके आनन्दमय स्वरूप का आलिंगन किया। उनका शरीर पुलकित हो गया और बहुत दिनों की विरह-व्याधि शान्त हो गयी। मथुरा की नारियाँ अपने-अपने महलों की अटारियों पर चढ़कर बलराम और श्रीकृष्ण पर पुष्पों की वर्षा करने लगीं। उस समय उन स्त्रियों के मुखकमल प्रेम के आवेग से खिल रहे थे। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वेश्यों ने स्थान-स्थान पर दही, अक्षत, जल से भरे पात्र, फूलों के हार, चन्दन और भेंट की सामग्रियों से आनन्दमग्न होकर भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी की पूजा की। भगवान को देखकर सभी पुरवासी आपस में कहने लगे- "धन्य हैं! धन्य हैं!" गोपियों ने ऐसी कौन-सी महान तपस्या की है, जिसके कारण वे मनुष्यमात्र को परमानन्द देने वाले इन दोनों मनोहर किशोरों को देखती रहती हैं।

इसी समय भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि एक धोबी, जो कपड़े रँगने का भी काम करता था, उनकी ओर आ रहा है। भगवान श्रीकृष्ण ने उससे धुले हुए उत्तम-उत्तम कपड़े माँगे। भगवान ने कहा- "भाई! तुम हमें ऐसे वस्त्र दो, जो हमारे शरीर में पूरे-पूरे आ जायँ। वास्तव में हम लोग उन वस्त्रों के अधिकारी हैं। इसमें सन्देह नहीं कि यदि तुम हम लोगों को वस्त्र दोगे तो तुम्हारा परम कल्याण होगा।" परीक्षित! भगवान सर्वत्र परिपूर्ण हैं। सब कुछ उन्हीं का है। फिर भी उन्होंने इस प्रकार माँगने की लीला की। परन्तु वह मूर्ख कंस का सेवक होने के कारण मतवाला हो रहा था। भगवान की वस्तु भगवान को देना तो दूर रहा, उसने क्रोध में भरकर आपेक्ष करते हुए कहा- "तुम लोग रहते हो सदा पहाड़ और जंगलों में। क्या वहाँ ऐसे ही वस्त्र पहनते हो? तुम लोग बहुत उदण्ड हो गये हो तभी तो ऐसे बढ़-बढ़कर बातें करते हो। अब तुम्हें राजा का धन लूटने की इच्छा हुई है। अरे, मूर्खों! जाओ, भाग जाओ। यदि कुछ दिन जीने की इच्छा हो तो फिर इस तरह मत माँगना। राज्यकर्मचारी तुम्हारे जैसे उच्छृखंलों को कैद कर लेते हैं, मार डालते हैं और जो कुछ उनके पास होता है, छीन लेते हैं।"

जब वह धोबी इस प्रकार बहुत कुछ बहक-बहककर बातें करने लगा, तब भगवान श्रीकृष्ण ने तनिक कुपित होकर उसे एक तमाचा जमाया और उसका सिर धड़ाम से धड़ से नीचे जा गिरा। यह देखकर उस धोबी के अधीन काम करने वाले सब-के-सब कपड़ों के गट्ठर वहीं छोड़कर इधर-उधर भाग गये। भगवान ने उन वस्त्रों को ले लिया। भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी ने मनमाने वस्त्र पहन लिये तथा बचे हुए वस्त्रों में से बहुत-से अपने साथी ग्वाल-बालों को भी दिये। बहुत-से कपड़े तो वहीं जमीन पर ही छोड़कर चल दिये। भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जब कुछ आगे बढ़े, तब उन्हें एक दर्जी मिला। भगवान का अनुपम सौन्दर्य देखकर उसे बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने उन रँग-बिरंगे सुन्दर वस्त्रों को उनके शरीर पर ऐसे ढंग से सजा दिया कि वे सब ठीक-ठीक फब गये। अनेक प्रकार के वस्त्रों से विभूषित होकर दोनों भाई और भी अधिक शोभायमान हुए ऐसे जान पड़ते, मानो उत्सव के समय श्वेत और श्याम गजशावक भलीभाँति सजा दिये गये हों। भगवान श्रीकृष्ण उस दर्जी पर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उसे इस लोक में भरपूर धन-सम्पत्ति, बल-ऐश्वर्य, अपनी स्मृति और दूर तक देखने-सुनने आदि की इन्द्रियसम्बन्धी शक्तियाँ दी और मृत्यु के बाद के लिये अपना सारुप्य मोक्ष भी दे दिया।

इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण सुदामा माली के घर गये। दोनों भाइयों को देखते ही सुदामा उठ खड़ा हुआ और पृथ्वी पर सिर रखकर उन्हें प्रणाम किया। फिर उनको आसन पर बैठाकर उनके पाँव पखारे, हाथ धुलाये और तदनन्तर ग्वालबालों के सहित सबकी फूलों के हार, पान, चन्दन आदि सामग्रियों से विधिपूर्वक पूजा की। इसके पश्चात् उसने प्रार्थना की- "प्रभो! आप दोनों के शुभागमन से हमारा जन्म सफल हो गया। हमारा कुल पवित्र हो गया। आज हम पितर, ऋषि और देवताओं के ऋण से मुक्त हो गये। वे हम पर परम संतुष्ट हैं। आप दोनों सम्पूर्ण जगत के परम कारण हैं। आप संसार के अभ्युदय-उन्नति और निःश्रेयस-मोक्ष के लिये ही इस पृथ्वी पर अपने ज्ञान, बल आदि अंशों के साथ अवतीर्ण हुए हैं। यद्यपि आप प्रेम करने वालों से ही प्रेम करते हैं, भजन करने वालों को ही भजते हैं, फिर भी आपकी दृष्टि में विषमता नहीं है। क्योंकि आप सारे जगत के परम सुहृद और आत्मा हैं। आप समस्त प्राणियों और पदार्थों में समरूप से स्थित हैं। मैं आपका दास हूँ। आप दोनों मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं आप लोगों की क्या सेवा करूँ। भगवन! जीव पर आपका यह बहुत बड़ा अनुग्रह है, पूर्ण कृपाप्रसाद है कि आप उसे आज्ञा देकर किसी कार्य में नियुक्त करते हैं।" राजेन्द्र! सुदामा माली ने इस प्रकार प्रार्थना करने के बाद भगवान का अभिप्राय जानकार बड़े प्रेम और आनन्द से भरकर अत्यन्त सुन्दर-सुन्दर तथा सुगन्धित पुष्पों से गुंथें हुए हार उन्हें पहनाये।

जब ग्वालबाल और बलरामजी के साथ भगवान श्रीकृष्ण उन सुन्दर-सुन्दर मालाओं से अलंकृत हो चुके, तब उन वरदायक प्रभु ने प्रसन्न होकर विनीत और शरणागत सुदामा को श्रेष्ठ वर दिये। सुदामा माली ने उनसे यही वर माँगा कि "प्रभो! आप ही समस्त प्राणियों के आत्मा हैं। सर्वस्वरूप आपके चरणों में मेरी अविचल भक्ति हो। आपके भक्तों से मेरा सौहार्द, मत्री का सम्बन्ध हो और समस्त प्राणियों के प्रति अहैतुक दया का भाव बना रहे।" भगवान श्रीकृष्ण ने सुदामा को उसके माँगे हुए वर तो दिये ही-ऐसी लक्ष्मी भी दी जो वंशपरम्परा के साथ-साथ बढ़ती जाय; और साथ ही बल, आयु, कीर्ति तथा कान्ति का भी वरदान दिया। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण बलरामजी के साथ वहाँ से बिदा हुए।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दशम स्कन्ध, अध्याय 41, श्लोक 1-52
  2. गंगाजल या चरणामृत
  3. बिल्लौर
  4. प्रधान दरवाज़े
  5. बाहरी दरवाजे
  6. केवल स्त्रियों के उपयोग में आने वाले बगीचे
  7. जौके अंकुर

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