ऊधौ हरि रीझे धौ काहे।
इक चेरी अरु सुनति कूबरी, बाँधे मोर पछाहें।।
कुटिल कुरूप मध्य तिरबकी, सोवै नाहि उतानी।
सुनि सुनि सोभा हँसत लोग सब, भली स्याम मन मानी।।
जो कछु सिद्धि कूबर मै, हमहूँ कहि न पठावै।
चलै चाल हमहूँ बनि टेठी, कूबर कनक बनावै।।
जो हरि कहै करै हम सोई, लोक लाज सब छोडी।
‘सूरदास’ प्रभु रहै हमारै, कुबिजा तजै निगोड़ी।। 172 ।।