ऊधौ हरि जू हित जमाइ, चित चुराइ लीयौ।
चपल नयन उन चलाइ, अग राग दीयौ।।
परम साधु सखा सुजन, जदुकुल के मान।
कहौ बात प्रात एक, साँची जिय जान।।
सरद सुभग बारिज दृग, भौंहें ज्यौ कमान।
क्यौ जीवहिं बेधे उर, लगे विषम बान।।
मोहन मधुपुरी बसे, पठयौ व्रज सँदेस।
क्यौ न कॉपी मेदिनी, जुवतिनि उपदेस।।
तुम सयाने स्याम के देखौ जिय विचारि।
प्रीतम पति नृपति भए, जोग गहै नारि।।
कोमल कर मधुर मुरलि, अधर धरे तान।
परस सुधा पूरि रही, कह सुनैऽब कान।।
मृगीऽरू मृग बिलोचनी, उभय एक प्रकार।
नाद बैन बिषम तै न जान्यौ मारनहार।।
गोधन तजि गमन कियौ, लियौ बिरद गुपाल।
नीकै करि कहिबी यह, भली निगम चाल।।
‘सूर’ सुमति सुंदरी, कुम्हिलाने मुख सरोज।
सहि न सके स्याम जु उर चाँपि लई उरोज।। 180 ।।