उद्धव ! सत्य सुनाया तुमने, मुझको प्रियतमका संदेश।
घुले-मिले रहते मुझमें वे प्रियतम सर्व काल, सब देश॥
पर मैं प्रेमशून्य रस-वर्जित रसमय दिव्य चक्षुसे हीन।
उन्हें निरन्तर रहते भी मैं देख न पाती मलिना दीन॥
कभी विरह-व्याकुल हो जाती कर उठती तब करुण पुकार।
’हा प्राणोंके प्राण ! दयित हे ! दीनदयार्द्र-हृदय सुकुमार !॥
यमुना-पुलिन नाचते सुन्दर नटवर वेश धरे घन-श्याम।
नहीं दिखाओगे क्या दुःखिनिको अब वह मुख-चन्द्र ललाम’॥
कोटि-कोटि विधु-सुधा मधुर हो सहसा उदय श्याम रस-सार।
लगते सतत अमित बरसाने शीतल परम सुधाकी धार॥
युगपत् बाह्यभ्यन्तर होता उनका मधुर मिलन अश्रान्त।
विरह-यन्त्रणाकी सब ज्वाला हो जातीं तुरंत ही शान्त॥
उठतीं प्रेम-सुधा-रस-सागर में उत्ताल अनन्त तरंग।
हो जाते प्रफुल्ल सब अवयव पाकर प्रिय आलिङ्गन-संग॥