अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैवत का वर्णन

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 42 में अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैवत का वर्णन हुआ है।[1]

ब्रह्मा द्वारा भूत, अधिभूत आदि विविध विषयों का वर्णन

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! ब्रह्मा जी ने कहा- महर्षिगण! अब समस्त ज्ञानेप्द्रियों के भूत, अधिभूत आदि विविध विषयों का वर्णन किया जाता है। आकाश पहला भूत है। कान उसका अध्यात्म (इन्द्रिय), शब्द उसका अधिभूत (विषय) और दिशाएँ उसकी अधिदैवत (अधिष्ठातृ देवता) हैं। वायु दूसरा भूत है। त्वचा उसका अध्यात्म तथा स्पर्श उसका अधिभूत सुना गया है और विद्युत् उसका अधिदैवत है।[1] तीसरे भूत का नाम है तेज। नेत्र उसका अध्यात्म, रूप उसका अधिभूत और सूर्य उसका अधिदैवत कहा जाता है। जल को चौथा भूत समझना चाहिये। रसना उसका अध्यात्म, रस उसका अधिभूत और चन्द्रमा उसका अधिदैवत कहा जाता है। पृथ्वी पाँचवाँ भूत है। नासिका उसका अध्यात्म, गन्ध उसका अधिभूत और वायु उसका अधिदैवत कहा जाता है। इन पाँच भूतों में अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैवत रूप तीन भेद माने गये हैं। अब कर्मेन्द्रियों से सम्बन्ध रखने वाले विविध विषयों का निरूपण किया जाता है। तत्त्वदर्शी ब्राह्मण दोनों पैरों को अध्यात्म कहते हैं और गन्तव्य स्थान को उनके अधिभूत तथा विष्णु को उनके अधिदैवत बतलाते हैं।[2]

निम्न गति वाला अपान एवं गुदा अध्यात्म कहा गया है और मलत्याग उसका अधिभूत तथा मित्र उसके अधिदेवता हैं। सम्पूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करने वाला उपस्थ अध्यात्म है और वीर्य उसका अधिभूत तथा प्रजापति उसके अधिष्ठाता देवता कहे गये हैं। अध्यात्म तत्त्व को जानने वाले पुरुष दोनों हाथों को अध्यात्म बतलाते हैं। कर्म उनके अधिभूत और इन्द्र उनके अधिदेवता हैं। विश्व की देवी पहली वाणी यहाँ अध्यात्म कही गयी है। वक्तव्य उसका अधिभूत तथा अग्नि उसका अधिदैवत है। पंच भूतों का संचालन करने वाला मन अध्यात्म कहा गया है। संकल्प उसका अधिभूत है और चन्द्रमा उसके अधिष्ठाता देवता माने गये हैं। सम्पूर्ण संसार को जन्म देने वाला अहंकार अध्यात्म है और अभिमान उसका अधिभूत तथा रुद्र उसके अधिष्ठाता देवता हैं। पांच इन्द्रियों और छठे मन को जानने वाली बुद्धि को अध्यात्म कहते हैं। मन्तव्य उकसा अधिभूत और ब्रह्मा उसके अधिदेवता हैं। प्राणियों के रहने के तीन ही स्थान हैं- जल, थल और आकाश। चौथा स्थान सम्भव नहीं है।

अध्यात्म विधि का वर्णन

देहधारियों का जन्म चार प्रकार का होता है- अण्डज, उद्भिज्ज, स्वेदज और जरयुज। समस्त भूत समुदाय का चार प्रकार का ही जन्म देखा जाता है। इनके अतिरिक्त जो दूसरे आकाशचारी प्राणी हैं तथा जो पेट से चलने वाले सर्प आदि हैं, उन सबको भी अण्डज जानना चाहिये। पसीने से उत्पन्न होने वाले जू आदि कीट और जन्तु स्वेदज कहे जाते हैं। यह क्रमश: दूसरा जन्म पहले की अपेक्षा निम्न स्तर का कहा जाता है। द्विजवरो! जो पृथ्वी को फोड़कर समय पर उत्पन्न होते हैं, उन प्राणियों को उद्भिज्ज कहते हैं। श्रेष्ठ ब्राह्मणो! दो पैर वाले, बहुत पैर वाले एंव टेढ़े मेढ़े चलने वाले तथा विकृत रूप वाले प्राणी जरायुज हैं। ब्राह्मणत्व का सनातन हेतु दो प्रकार का जानना चाहिये- तपस्या ओर पुण्यकर्म का अनुष्ठान, यही विद्वानों का निश्चय है। कर्म के अनेक भेद हैं, उनमें पूजा, दान और यज्ञ में हवन करना- ये प्रधान हैं। वृद्ध पुरुषों का कथन है कि द्विजों के कुल में उत्पन्न हुए पुरुष के लिये वेदों का अध्ययन करना भी पुण्य का कार्य है। द्विजवरो! जो मनुष्य इस विषय को विधिपूर्वक जानता है, वह योगी होता है तथा उसे सब पापों से छुटकारा मिल जाता है। इसे भली-भाँति समझो। इस प्रकार मैंने तुम लोगों से अध्यात्म विधि का यथावत वर्णन किया। धर्मज्ञ जन! ज्ञानी पुरुषों को इस विषय का सम्यक ज्ञान होता है।[2] इन्द्रियों, उनके विषयों और पंच महाभूतों की एकता का विचार करके उसे मन में अच्छी तरह धारण कर लेना चाहिये। मन के क्षीण होने के साथ ही सब वस्तुओं का क्षय हो जाने पर मनुष्य को जन्म के सुख (लौकिक सुख भोग आदि) की इच्छा नहीं होती। जिनका अन्त:करण ज्ञान से सम्पन्न होता है, उन विद्वानों को उसी में सुख का अनुभव होता है।[3]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 42 श्लोक 1-19
  2. 2.0 2.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 42 श्लोक 20-41
  3. महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 42 श्लोक 42-57

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