अधर मधु कत मूई हम राखि
संचित किये रहीं स्रद्धा सौं, सकीं न सकुचनि चाखि।।
सहि-सहि सीत, जाइ जमुना-जल, दीन बचन मुख भाषि।
पूजि उमापति बर पायौ हम, मनहीं मन अभिलाषि।।
सोइ अब अमृत पिवति है मुरली, सबहिनि कै सिर नाखि।
लियौ छँड़ाइ सकल सुनि सूरज, बेनु धूरि दै आँखि।।1223।।