अदभुत जस बिस्‍तार करन कौं -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

Prev.png
राग धनाश्री



अदभुत जस बिस्‍तार करन कौं हम जन कौ बहु हेत।
भक्‍त-पावन कोउ कहत न कबहूँ, पतित-पावन कहि लेत।
जय अरु विजय कथा नहिं कछुवै, दसमुख-वध-विस्‍तार।
जद्यपि जगत-जननि कौ हरता, सुनि सब उतरत पार।
सेसनाग के ऊपर पोढ़त, तेतिक नाहिं बड़ाई।
जातुधानि-कुच-गर भर्षत तब, तहाँ पूनँता पाई।
धर्म कहैं, सर-सयन गंग-सुत, तेतिक नाहिं सँतोष।
सुत सुमिरत आतुर द्विज उधरत नाम भयौ निर्दोष।
धर्म-कर्म-अधिकारिनि सौं कछु नाहिं न तुम्‍हरौ काज।
भू-भर-हरन प्रगट तुम भूतल, गावत संत-समाज।
भार-हरन बिरुदावली तुम्‍हरी मेरे क्‍यौं न उतारौ ?
सूरदास-सत्‍कार किए तैं ना कछु घटै तुम्‍हारौ।।।215।।

इस पद के अनुवाद के लिए यहाँ क्लिक करें
Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः