अति सुख कौसिल्या उठि धाई।
उदित बदन मन मुदित सदन तें, आरति साजि सुमित्रा ल्याई।
जनु सुरभी बन बसति बच्छ, बिनु, परबस पसुपति की बहराई।
चली साँझ समुहाइ स्त्रवत थन, उमँगि मिलन जननी दोउ आई।
दघि-फल-दूब कनक-कोपर भरि, साजत सौंज विचित्र बनाई।
अभी-वचन सुनि होत कुलाहल, देवनि दिवि दुंदभी बजाई।
बरन-बरन पट परत पाँबडे़, बीथिनि सकल सुगंध सिंचाई।
पुलकित-रोम, हरष-गदगद-स्बर, जुवतिनि मंगल-गाथा गाई।
निज मंदिर मैं आनि तिलक दै, द्विज-गन मुदित असीस सुनाई।
सिया-सहित सुख बसौ इहाँ तुर, सूरदास नित उठि बलि जाई॥169॥