अति चित चंचल जानि लई।
मन भाँवरि करियत नागर पर, रस बस मोल लई।।
परमानंद साँवरे, ऊपर तन मन बिसरि गई।
राधा स्याम प्रीति उर अतर, सरबस प्रीति हई।।
आबन जान गवन कत कीन्हो, हरि सब भाँति ठई।
गोपीनाथ प्रान के रसबस, जानी जई दई।।
गिरिधरलाल रसिक के ऊपर, कुबिजा वारि गई।
मान मनाइ लियौ साँवरे कौ, छन मैं प्रीति भई।।
मानिनि मान करत गोपी हम दुख सब भाँति पई।
'सूरदास' चिंतामनि चित धरि, अब कित प्रीति गई।।
मेरे मन बच कम साँवरे, और न मान मई।। 135 ।।