अग्नि के स्वरूप में अग्निहोत्र की विधि

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के वैष्णव धर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 92 में अग्नि के स्वरूप में अग्निहोत्र की विधि का वर्णन हुआ है।[1]

कृष्ण द्वारा अग्नियों का वर्णन

युधिष्‍ठिर ने पूछा- देवदेवेश्‍वर! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्‍यों को किस प्रकार हवन करना चाहिये ? और उनके द्वारा किस प्रकार किया हुआ हवन शुभ होता है? विभो! अग्‍नि के कितने भेद हैं? उनके पृथक-पृथक स्‍वरूप क्‍या हैं? किस अग्‍नि का कहाँ स्‍थान है? अग्‍निहोत्र पुरुष किस अग्‍नि में हवन करके किस लोक को प्राप्‍त होता है? निष्‍पाप! पूर्वकाल में अग्‍निहोत्र किसके निमित्त से उत्‍पन्‍न हुआ था? देवताओं के लिेये किस प्रकार हवन किया जाता है और कैसे उनकी तृप्‍ति होती है ? प्रवक्‍ताओं में श्रेष्‍ठ श्रीकृष्‍ण! विधि के अनुसार मन्‍त्रों सहित पूजा की जाने पर तीनों अग्‍नियाँ अग्‍निहोत्री को किस प्रकार किस गति को प्राप्‍त कराती हैं?

भगवन! केशव! यदि तीनों अग्‍नियों के स्‍वरूप को न जानकर उनमें अविधिपूर्वक हवन किया जाय अथवा उनकी उपासना में त्रुटि रह जाय तो वे त्रिविध अग्‍नि अग्‍निहोत्री का क्‍या अनिष्‍ट करते हैं? देवेश्‍वर! जिसने अग्‍नि का परित्‍याग कर दिया हो, वह पापात्‍मा किस योनि में जन्‍म लेता है ? ये सार बातें संक्षेप में मुझे सुनाइये; क्‍योंकि मैं भक्‍ति भाव से आपकी शरण में आया हूँ। भगवन! आप सर्वज्ञ हैं, सबसे महान है; अत: आपको मैं नमस्‍कार करता हूँ।

श्रीभगवान ने कहा- राजन! इस महान पुण्‍यदायक और परम धर्मरूपी अमृत का वर्णन सुनो। यह धर्मपरायण अग्‍निहोत्री ब्राह्मणों को भवसागर से पार कर देता है। महातेजस्‍वी महाराज! मैंने सृष्‍टि के प्रारम्‍भ में ब्रह्मस्‍वरूप से सम्‍पूर्ण लोकों की सृष्‍टि की और लोगों की भलाई के लिये अपने मुख से सर्वप्रथम अग्‍नि को प्रकट किया। इस प्रकार अग्‍नि-तत्त्व मेरे द्वारा सब भूतों के पहले उत्‍पन्‍न किया गया है, इसलिये पुराणों के ज्ञाता मनीषी विद्वान उसे अग्नि कहा जाता हैं। समस्‍त कार्यों में सबसे आगे प्रज्‍वलित आग में ही आहुति दी जाती है, इसलिये यह अग्‍नि कहा जाता है। राजन! यह भली-भाँति पूजित होने पर ब्राह्मणों को अग्रयगति (परमपद) – की प्राप्‍ति कराता है, इसलिये भी देवताओं में अग्‍नि के नाम से विख्‍यात है।

नरोत्‍तम! यदि इसमें विधि का उल्‍लंघन करके हवन किया जाय तो यह एक क्षण में ही यजमानों को खा जाने की शक्‍ति रखता है, इसलिये अग्‍नि को क्रव्‍याद कहा गया है। राजन! यह अग्‍नि सम्‍पूर्ण भूतों का स्‍वरूप और देवताओं का मुख है। अत: इन्‍द्रियों और मन-बुद्धि पर संयम रखने वाले सिद्ध सप्‍तर्षिगण अग्‍नि की आराधना में तत्‍पर रहने के कारण ही देवताओं के स्‍वरूप को प्राप्‍त हुए हैं।

अग्नि के स्वरूप में अग्निहोत्र की विधि

राजन्! अब एकाग्रचित्‍त होकर अग्‍निहोत्र का प्रकार सुनो। अब मै तीन अग्‍नियों के गुण के अनुसार नाम बता रहा हूँ। गृहों का आधिपत्‍य ही गृहपत्‍य माना गया है। यह गृहपत्‍य जिस अग्‍नि में प्रतिष्‍ठित है, वही ‘गार्हपत्‍य अग्‍नि’ के नाम से प्रसिद्ध है। जो अग्‍नि यजमान को दक्षिण मार्ग से स्‍वर्ग में ले जाता है, उस दक्षिण में रहने वाले अग्‍नि को ब्राह्मण लोग ‘दक्षिणाग्‍नि‘ कहते हैं। ‘आहुति’ शब्‍द सर्व का वाचक है और हवन नाम ही है हव्‍य का। सब प्रकार के हव्‍य को स्‍वीकार करने वाला वह्नि ‘आहवनीय अग्‍नि’ कहलाता है।[1]

गार्हपत्‍य अग्‍नि ब्रह्मा का स्‍वरूप है, क्‍योंकि ब्रह्मा जी से ही उसका प्रादुर्भाव हुआ है और यह दक्षिणाग्‍नि रुद्रस्‍वरूप है, क्‍योंकि वह क्रोध रूप और प्रचण्‍ड है। होम के आरम्‍भ से लेकर अन्‍त तक जिसके मुख में आहुति डाली जाती है, वह आहवनीय अग्‍नि स्‍वयं मैं हूँ। जो मनुष्‍य भक्ति युक्‍त चित्‍त से प्रतिदिन आहवनीय अग्‍नि में हवन करता है, वह पृथ्‍वी, अंतरिक्ष और ऋषियों-सहित स्‍वर्गलोक पर भी अधिकार प्राप्‍त कर लेता है। यज्ञों में सब ओर से अग्‍नि के मुख में हवन किया जाता है, इसलिये वह अत्‍यन्‍त कान्‍तिमान अग्‍नि ‘आहवनीय’ संज्ञा को प्राप्‍त होता है। अग्‍निहोत्र अथवा अन्‍याय यज्ञों में होम के आरम्‍भ से ही अग्‍नि के भीतर सब प्रकार से आहुति डाली जाती है, इसलिये भी उसे आहवनीय कहते हैं। नरेश्‍वर! आत्‍मवेत्‍ता विद्वानों ने आध्‍यात्‍मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक- ये तीन प्रकार के दु:ख बतलाये हैं। विधिवत होम करने पर अग्‍नि इन तीनों प्रकार के दु:खों से यजमान का त्राण करता है, इसलिये उस कर्म को वेद में अग्‍निहोत्र नाम दिया गया है। विश्‍वविधाता ब्रह्मा जी ने ही सबसे पहले अग्‍निहोत्र को प्रकट किया। वेद और अग्‍निहोत्र स्‍वत: उत्‍पन्‍न हुए हैं।

वेदाध्‍ययन का फल अग्‍नहोत्र है (अर्थात वेद पढ़कर जिसने अग्‍नहोत्र नहीं किया, उसका वह अध्‍ययन निष्‍फल है)। शास्‍त्रज्ञान का फल शील और सदाचार है, स्‍त्री का फल रति और पुत्र है तथा धन की सफलता दान और उपभोग करने में हैं। तीनों वेदों के मंत्रों के संयोग से अग्‍निहोत्र की प्रवृत्‍ति होती है। ऋक्, यजु: और सामवेद के पवित्र मंत्रों तथा मीमांसा सूत्रों क द्वारा अग्‍निहोत्र-कर्म का प्रतिपादन किया जाता है। नरेश्‍वर! वसन्‍त-ऋतु को ब्राह्मण का स्‍वरूप समझना चाहिये तथा वह वेद की योनिरूप है, इसलिये ब्राह्मण को वसन्‍त-ऋतु में अग्‍नि की स्‍थापना करनी चाहिये।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-49
  2. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-50

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