अखिल विश्व में बरसे पावन परम मधुर प्रेमामृतधार॥
रहे सभी की रति स्वधर्म में, रहे सदा सब में शुचि त्याग।
रहें सदा सत्संग-भजन में, लीला में शुचि रुचि-अनुराग॥
रहे प्रकृति संयत, हो सारी ऋतुओं का उपयुक्त विकास।
कभी क्षुधा-पीड़ित प्राणी के हो न स्वास्थ्य-जीवन का नाश॥
धरती प्रचुर अन्न-प्रसविनि हो, वृक्ष करें फल-दान अपार।
गायें मनों दूध दें, घृत दें, यज्ञ-यागका बढ़े प्रसार॥
चोर-डाकुओं, ठगों-उचक्कों का न कहीं भी हो अस्तित्व।
सभी सत्यवादी हों, छीनें कभी न भूल पराया स्वत्व॥
नारी पतिव्रता हों सारी, हों न कभी विधवा, अति दीन।
पुत्र पिता-माता, गुरुजन की सेवा में सहर्ष हों लीन॥
नित अनाथ-असहाय जनों की सेवा में मति रहे अमान।
हो अपमान न कभी किसी का, पाते रहें सभी समान॥
कभी न उपजे मनमें किंचित् सेवा का कदापि अभिमान।
‘हुई समर्पित प्रभु को प्रभु की वस्तु’-रहे इतना ही भान॥