"प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 110" के अवतरणों में अंतर

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मधुर भाव के, [[गोपी]] भाव के संत लोग तो विचित्र-विचित्र तरह की लीला करते हैं। वहाँ तो बड़े-छोटे का संकोच ही नहीं। कभी चपत लगा देते हैं। [[श्रीकृष्ण]] चपत खाकर रूठ जाते हैं। अब वे गोपी भाव सम्पन्न संत उन्हें मनाते हैं। मनाते समय श्यामसुन्दर तरह-तरह की शर्तें पेश करते हैं। यह ला दो तो मानकर फिर तुम्हारे साथ खेलूँगा। वहाँ अत्यन्त सुन्दर लीला हुई। अब उसमें कुछ श्यामसुन्दर को वह लेकर देने जा रहे हैं। वह चीज तो मानसिक थी, पर आँख खुल जाती है और वे देखते हैं कि वही चीज यहाँ इस हाथ में है।
 
मधुर भाव के, [[गोपी]] भाव के संत लोग तो विचित्र-विचित्र तरह की लीला करते हैं। वहाँ तो बड़े-छोटे का संकोच ही नहीं। कभी चपत लगा देते हैं। [[श्रीकृष्ण]] चपत खाकर रूठ जाते हैं। अब वे गोपी भाव सम्पन्न संत उन्हें मनाते हैं। मनाते समय श्यामसुन्दर तरह-तरह की शर्तें पेश करते हैं। यह ला दो तो मानकर फिर तुम्हारे साथ खेलूँगा। वहाँ अत्यन्त सुन्दर लीला हुई। अब उसमें कुछ श्यामसुन्दर को वह लेकर देने जा रहे हैं। वह चीज तो मानसिक थी, पर आँख खुल जाती है और वे देखते हैं कि वही चीज यहाँ इस हाथ में है।
  
एक बार दो भक्त थे! [[वृन्दावन]] की बात है। दोनों अपने को श्यामसुन्दर की सखी मानकर सखी का शरीर धारण करके सेवा की भावना करते थे। सेवा की साधना में बहुत ऊँचे उठ गये थे। एक दिन की बात है कि राधाकुण्ड में जल-विहार की लीला चल रही थी। वे उसी के ध्यान में लगे हुए थे। लीला होते-होते श्रीप्रियाजी के कानों का कुण्डल जल में गिर गया। अब संत तो वहाँ सखी के वेष में थे। अतः उनकी सखी राधारानी का कुण्डल गिरने से वे घबराकर पानी में डुबकी मारकर खोजने लगे। इधर ध्यान में तो एक-दो मिनट ही बीता था, पर यहाँ सात दिन बीत गये। लोगों ने देखा कि आँखें बंद हैं, श्वास धीरे-धीरे चल रहा है, सात दिन एक आसन से बैठे बीत गये हैं। उनके एक मित्र थे। उनका नाम शायद रामचन्द्रजी था। उनको लोगों ने समाचार दिया। वे स्वयं भी पहुँचे हुए थे। उन्होंने आकर देखा- देखते ही समझ गये कि यहाँ तो कुण्डल की खोज चल रही है। बस, चट से वे उन्हीं के बगल में बैठ गये। ध्यान में ही पहुँचे तथा कुण्डल, जो एक कमल की जड़ में छिपा हुआ था, उठाकर इनके हाथों में दे दिया। कुण्डल पाकर इन्होने उसे प्रियाजी के कानों में पहना दिया। पहनाने पर प्रियाजी ने प्रसन्न होकर अपने मुँह में का पान उनके मुँह में दे दिया। अब पान तो ध्यान में दिया था, पर उसी समय आँखें खुलीं। देखते हैं कि मुँह पान से भरा हुआ है। दोनों मित्र हँसने लग गये और लोगों ने कुछ नहीं समझा। केवल इतना ही देखा कि सात दिन बाद पान चबाते हुए उठे। जब दो प्रेमी साथी मिलकर ऐसी सेवा की साधना एक साथ करते हैं तथा दोनों ही जब ऊँची स्थिति में पहुँच जाते हैं तब एक-दूसरे की क्या अवस्था है, यह भगवान् की कृपा से वे जान लेते हैं। यह योग की बात नहीं है। यह तो साधन के साम्य की बात है तथा भगवदिच्छा से ऐसा हो जाता है।
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एक बार दो भक्त थे! [[वृन्दावन]] की बात है। दोनों अपने को श्यामसुन्दर की सखी मानकर सखी का शरीर धारण करके सेवा की भावना करते थे। सेवा की साधना में बहुत ऊँचे उठ गये थे। एक दिन की बात है कि राधाकुण्ड में जल-विहार की लीला चल रही थी। वे उसी के ध्यान में लगे हुए थे। लीला होते-होते श्रीप्रियाजी के कानों का कुण्डल जल में गिर गया। अब संत तो वहाँ सखी के वेष में थे। अतः उनकी सखी राधारानी का कुण्डल गिरने से वे घबराकर पानी में डुबकी मारकर खोजने लगे। इधर ध्यान में तो एक-दो मिनट ही बीता था, पर यहाँ सात दिन बीत गये। लोगों ने देखा कि आँखें बंद हैं, श्वास धीरे-धीरे चल रहा है, सात दिन एक आसन से बैठे बीत गये हैं। उनके एक मित्र थे। उनका नाम शायद रामचन्द्रजी था। उनको लोगों ने समाचार दिया। वे स्वयं भी पहुँचे हुए थे। उन्होंने आकर देखा- देखते ही समझ गये कि यहाँ तो कुण्डल की खोज चल रही है। बस, चट से वे उन्हीं के बगल में बैठ गये। ध्यान में ही पहुँचे तथा कुण्डल, जो एक कमल की जड़ में छिपा हुआ था, उठाकर इनके हाथों में दे दिया। कुण्डल पाकर इन्होंने उसे प्रियाजी के कानों में पहना दिया। पहनाने पर प्रियाजी ने प्रसन्न होकर अपने मुँह में का पान उनके मुँह में दे दिया। अब पान तो ध्यान में दिया था, पर उसी समय आँखें खुलीं। देखते हैं कि मुँह पान से भरा हुआ है। दोनों मित्र हँसने लग गये और लोगों ने कुछ नहीं समझा। केवल इतना ही देखा कि सात दिन बाद पान चबाते हुए उठे। जब दो प्रेमी साथी मिलकर ऐसी सेवा की साधना एक साथ करते हैं तथा दोनों ही जब ऊँची स्थिति में पहुँच जाते हैं तब एक-दूसरे की क्या अवस्था है, यह भगवान् की कृपा से वे जान लेते हैं। यह योग की बात नहीं है। यह तो साधन के साम्य की बात है तथा भगवदिच्छा से ऐसा हो जाता है।
 
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01:02, 28 अप्रॅल 2018 के समय का अवतरण

प्रेम सत्संग सुधा माला

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मधुर भाव के, गोपी भाव के संत लोग तो विचित्र-विचित्र तरह की लीला करते हैं। वहाँ तो बड़े-छोटे का संकोच ही नहीं। कभी चपत लगा देते हैं। श्रीकृष्ण चपत खाकर रूठ जाते हैं। अब वे गोपी भाव सम्पन्न संत उन्हें मनाते हैं। मनाते समय श्यामसुन्दर तरह-तरह की शर्तें पेश करते हैं। यह ला दो तो मानकर फिर तुम्हारे साथ खेलूँगा। वहाँ अत्यन्त सुन्दर लीला हुई। अब उसमें कुछ श्यामसुन्दर को वह लेकर देने जा रहे हैं। वह चीज तो मानसिक थी, पर आँख खुल जाती है और वे देखते हैं कि वही चीज यहाँ इस हाथ में है।

एक बार दो भक्त थे! वृन्दावन की बात है। दोनों अपने को श्यामसुन्दर की सखी मानकर सखी का शरीर धारण करके सेवा की भावना करते थे। सेवा की साधना में बहुत ऊँचे उठ गये थे। एक दिन की बात है कि राधाकुण्ड में जल-विहार की लीला चल रही थी। वे उसी के ध्यान में लगे हुए थे। लीला होते-होते श्रीप्रियाजी के कानों का कुण्डल जल में गिर गया। अब संत तो वहाँ सखी के वेष में थे। अतः उनकी सखी राधारानी का कुण्डल गिरने से वे घबराकर पानी में डुबकी मारकर खोजने लगे। इधर ध्यान में तो एक-दो मिनट ही बीता था, पर यहाँ सात दिन बीत गये। लोगों ने देखा कि आँखें बंद हैं, श्वास धीरे-धीरे चल रहा है, सात दिन एक आसन से बैठे बीत गये हैं। उनके एक मित्र थे। उनका नाम शायद रामचन्द्रजी था। उनको लोगों ने समाचार दिया। वे स्वयं भी पहुँचे हुए थे। उन्होंने आकर देखा- देखते ही समझ गये कि यहाँ तो कुण्डल की खोज चल रही है। बस, चट से वे उन्हीं के बगल में बैठ गये। ध्यान में ही पहुँचे तथा कुण्डल, जो एक कमल की जड़ में छिपा हुआ था, उठाकर इनके हाथों में दे दिया। कुण्डल पाकर इन्होंने उसे प्रियाजी के कानों में पहना दिया। पहनाने पर प्रियाजी ने प्रसन्न होकर अपने मुँह में का पान उनके मुँह में दे दिया। अब पान तो ध्यान में दिया था, पर उसी समय आँखें खुलीं। देखते हैं कि मुँह पान से भरा हुआ है। दोनों मित्र हँसने लग गये और लोगों ने कुछ नहीं समझा। केवल इतना ही देखा कि सात दिन बाद पान चबाते हुए उठे। जब दो प्रेमी साथी मिलकर ऐसी सेवा की साधना एक साथ करते हैं तथा दोनों ही जब ऊँची स्थिति में पहुँच जाते हैं तब एक-दूसरे की क्या अवस्था है, यह भगवान् की कृपा से वे जान लेते हैं। यह योग की बात नहीं है। यह तो साधन के साम्य की बात है तथा भगवदिच्छा से ऐसा हो जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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