श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
नवाँ अध्याय
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित: ।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥20॥
अर्जुन! सब भूतों के हृदय में स्थ्ति आत्मा मैं हूँ और मैं ही सारे भूतों का आदि, मध्य और अन्त हूँ।। 20।।
सर्वेषां भूतानाम् मम शरीर भूतानाम् आशये हृदये अहम् आत्मतया अवस्थितः आत्मा हि नाम शरीरस्य सर्वात्मना आधारो नियन्ता शेषी च। तथा वक्ष्यते-‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च’ [1] ‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृदेशेऽर्जुन तिष्ठति। भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।’ [2] इति। श्रूयते च- ‘यः सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्सर्वेभ्यो भूतेभ्योऽन्तरो यं सर्वाणि भूतानि न विदु: यस्य सर्वाणि भूतानि शरीरं य: सर्वाणि भूतान्यन्तरो यमयति। एष त आत्मान्तर्याम्यमृतः’ [3] इति ‘य आत्मनि तिष्ठन् आत्मनोऽन्तरो यमात्मा न वेद। यस्य आत्मा शरीरं य आत्मानमन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृतः’ [4] इति च।
मेरे शरीर रूप सभी भूतों के हृदय में मैं आत्मरूप से स्थित हूँ। शरीर का जो सब प्रकार से आधार, नियन्ता, शेषी (स्वामी) हो, उसका नाम ‘आत्मा’ है। सो यह बात आगे इस प्रकार कहेंगे-‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिज्ञानमपोहनं च।’ ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।’ श्रुतियाँ भी कहती हैं कि ‘जो सब भूतों में स्थित होकर समस्त भूतों की अपेक्षा आन्तरिक है, जिसको सब भूत नहीं जानते, सब भूत जिसके शरीर हैं, तथा जो सब भूतों के अन्दर रहकर उनका नियमन करता है, वह सर्वान्तर्यामी अमृत तेरा आत्मा है।’ ‘जो आत्मा में स्थित होकर आत्मा की अपेक्षा भी आन्तरिक है, जिसको आत्मा नहीं जानता, आत्मा जिसका शरीर है, जो आत्मा के अन्दर रहकर उसका नियमन करता है, वह अन्तर्यामी अमृत तेरा आत्मा है।’
एवं सर्वभूतानाम् आत्मतया अवस्थितः अहं तेषाम् आदिः मध्यं च अन्तः च, तेषाम् उत्पत्तिस्थिति प्रलयहेतुः इत्यर्थः।। 20।।
इस प्रकार सब भूतों में आत्मरूप से स्थित हुआ मैं उन सबका आदि, मध्य और अन्त हूँ अर्थात् उनकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का कारण हूँ।। 20।।
एवं भगवतः स्वविभूतिभूतेषु सर्वेषु आत्मतया अवस्थानं तत्तच्छब्दसामानाधिकरण्य निर्देशहेतुं प्रतिपाद्य विभूतिविशेषाम् सामानाधिकरण्येन व्यपदिशति; भगवति आत्मतया अवस्थिते हि सर्वे शब्दाः तस्मिन् एव पर्यवस्यन्ति। यथा देवो मनुष्यः पक्षी वृक्ष इत्यादयः शब्दाः शरीराणि प्रतिपादयन्तः तत्तदात्मनि पर्यवस्यन्ति।
इस प्रकार अपनी विभूतिरूप समस्त व्यक्तियों में भगवान् का आत्मस्वरूप से स्थित होना ही उन-उन व्यक्तिवाचक शब्दों के द्वारा समान भाव से भगवान् से भगवान् का निर्देश किये जाने में कारण है; यह बात प्रतिपादन करके अब उन-उन विभूतियों के भेदों का समानाधिकरणता पूर्वक वर्णन करते हैं- क्योंकि भगवान् सबके आत्मस्वरूप से स्थित हैं, इसलिये समस्त शब्दों का पर्यवसान उन्हीं में होता है। जैसे कि देव, मनुष्य, पक्षी और वृक्ष इत्यादि शबद शरीरों का प्रतिपादन करते हुए उन-उन शरीरों के आत्मा में पर्यवसित होते हैं।
भगवतः तत्तदात्मतया अवस्थानम् एव तत्तच्छब्दसामानाधिकरण्य निबन्धनम्, इति विभूत्युपसंहारे वक्ष्यति-‘न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।’[5] इति सर्वेषां स्वेन अविनाभाववचनात्। अविनाभावश्च नियाम्यतया इति ‘मत्तः सर्व प्रवर्तते’ [6] इति उपक्रमोदितम्।
भगवान का उन-उन-चेतन पदार्थों के आत्मा रूप से स्थित होना ही उन-उन के वाचक शब्दों की समानाधिकरणता में कारण है, यह बात विभूतियों के उपसंहार प्रकरण में भी ‘न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।’ इस प्रकार सबका अपने से रहित न होना (अपने बिना उनका न होना) बताकर कहेंगे। (इससे भगवान् का नियामक होना सिद्ध होता है।) तथा भगवान् से रहित किसी का न होना नियाम्यता के ही कारण है; यह आरम्भ में इस प्रकार कहा गया है कि ‘मत्तः सर्व प्रवर्तते।’
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