आरुणी, उपमन्यु, वेद और उत्तंक की गुरुभक्ति

महाभारत आदि पर्व अध्याय 3 के अनुसार आरुणी, उपमन्यु, वेद और उत्तंक की गुरुभक्ति का वर्णन इस प्रकार है[1]-

गुरु की आज्ञा का किस प्रकार पालन करना चाहिये, इस विषय में आगे का प्रसंग कहा जाता है इन्हीं दिनों आयोदधौम्य नाम से प्रसिद्ध एक महर्षि थे। उनके तीन शिष्य इुए-उपमन्यु, आरुणी पांचाल तथा वेद। आरुणी को खेत पर भेजा और कहा-‘वत्स! जाओ, 'क्यारियों की टूटी हुई मेंड़ बाँध दो।' उपाध्याय के इस प्रकार आदेश देने पर पांचाल देशवासी आरुणी वहाँ जाकर उस धान की क्यारी की मेंड़ बाँधने लग गया। परन्तु बाँध न सका। मेंड़ बाँधने के प्रयत्न में ही परिश्रम करते- करते उसे एक उपाय सूझ गया और वह मन ही मन बोल उठा- ‘अच्छा ऐसा ही करूँ’। वह क्यारी की टूटी हुई मेंड़ की जगह स्वयं ही लेट गया। उसके लेट जाने पर वहाँ का बहता हुआ जल रुक गया। फिर कुछ काल के पश्चात् उपाध्याय आयेद धौम्य ने अपने शिष्यों से पूछा-‘पांचाल निवासी आरुणी कहाँ चला गया’? शिष्यों ने उत्तर दिया-‘भगवान! ' आप ही ने तो उसे यह कहकर भेजा था कि ‘जाओ’ क्यारी की टूटी हुई मेड़ बाँध दो।’ शिष्यों के ऐसा कहने पर उपाध्याय ने उनसे कहा ‘तो चलो, हम सब लोग वहीं चलें, जहाँ आरुणी गया है।' वहाँ जाकर उपाध्याय ने उसे आने के लिये आवाज दी ‘पांचाल निवासी आरुणी! कहाँ हो वत्स! यहाँ आओ।' उपाध्याय का यह वचन सुनकर आरुणी पांचाल सहसा उस क्यारी की मेड़ से उठा और उपाध्याय के समीप आकर खड़ा हो गया। फिर उनसे विनय पूर्वक बेाला ‘भगवान! मैं यहाँ हूँ। क्यारी की टूटी हुई मेड़ से निकलते हुए अनिवार्य जल को रोकने के लिये स्वयं ही यहाँ लेट गया था। इस समय आपकी आवाज सुनते ही सहसा उस मेड़ को विदीर्ण करके आपके पास आ खड़ा हुआ। ‘मैं आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ, आप आज्ञा दीजिये, मैं कौन सा कार्य करूँ?’ आरुणी के ऐसा करने पर उपाध्याय ने उत्तर दिया- ‘तुम क्यारी के मेड़ को विद्रीर्ण करके उठे हो, अतः इस उददलन कर्म के कारण उददालम नाम से ही प्रसिद्ध होओगे।’ ऐसा कहकर उपाध्याय ने आरुणी को अनुगृहीत किया। साथ ही यह भी कहा कि, तुमने मेरी आज्ञा का पालन किया है, इसलिये तुम कल्याण के भागी होओगे। सम्पूर्ण वेद और समस्त धर्मशास्त्र तुम्हारी बुद्धि में स्वयं प्रकाशित हो जायेंगे’।[1]

उपमन्यु द्वारा गौओं की रक्षा

उपाध्याय के इस प्रकार आशीर्वाद देने पर आरुणी कृत- कृत्य हो अपने अभीष्ट देश को चला गया। उन्हीं आयोदधौम्य उपाध्याय का उपमन्यु नामक दूसरा शिष्य था। उसे उपाध्याय ने आदेश दिया, 'वत्स उपमन्यु! तुम गौओं की रक्षा करो।' उपाध्याय की आज्ञा से उपमन्यु गौओं की रक्षा करने लगा। वह दिन भर गौओं की रक्षा में रहकर संध्या के समय गुरु जी के घर पर आता और उनके सामने खड़ा हो नमस्कार करता। उपाध्याय ने देखा उपमन्यु खूब मोटा- ताजा हो रहा है, तब उन्होंने पूछा-‘बेटा उपमन्यु! तुम कैसे जीविका चलाते हो, जिससे इतने अधिक हृष्ट पुष्‍ट हो रहे हो ?’ उसने उपाध्याय से कहा- 'गुरुदेव! मैं भिक्षा से जीवन निर्वाह करता हूँ।' यह सुनकर उपाध्याय उपमन्यु से बोले- ‘मुझे अर्पण किये बिना तुम्हें भिक्षा का अन्न अपने उपयोग में नहीं लाना चाहिये।’ उपमन्यु ने बहुत अच्छा’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। अब वह भिक्षा लाकर उपध्याय को अर्पण करने लगा। उपाध्याय उपमन्यु से सारी भिक्षा ले लेते थे। उपमन्यु ‘तथास्तु’ कहकर पुनः पूर्ववत गौओं की रक्षा करता रहा। वह दिनभर गौओं की रक्षा में रहता और (संध्या के समय) पुनः गुरु के घर पर आकर गुरु के सामने खड़ा हो नमस्कार करता था। उस दशा में भी उपमन्यु को पूर्ववत हृष्ठ-पुष्ट ही देखकर उपाध्याय ने पूछा- ‘बेटा उपमन्यु! तुम्हारी सारी भिक्षा तो मैं ले लेता हूँ, फिर तुम इस समय कैसे जीवन निर्वाह करते हो।' उपाध्याय के ऐसा कहने पर उपमन्यु ने उन्हें उत्तर दिया ‘भगवान पहले की लायी हुई भिक्षा आपको अर्पित करके अपने लिये दूसरी भिक्षा लाता हूँ और उसी से अपनी जीविका चलाता हूँ’। यह सुनकर उपाध्याय ने कहाँ - यह न्यायशुक्त्त एवं श्रेष्ठवृत्ति नहीं है। तुम ऐसा करके दूसरे भिक्षा- जीवी लोगों की जीविका में बाधा डालते हो अतः तुम लोभी हो (तुम्हें दुबारा भिक्षा नहीं लानी चाहिये।)।' उसने ‘तथास्तु’ कहकर गुरु की आज्ञा मान ली और पूर्ववत गौओं की रक्षा करने लगा। एक दिन गायें चराकर वह फिर (सायंकाल को) उपाध्याय के घर आया और उनके सामने खड़े होकर उसने नमस्कार किया। उपाध्याय ने उसे फिर भी मोटा- ताजा ही देखकर पूछ ‘बेटा उपमन्यु! मैं तुम्हारी सारी भिक्षा ले लेता हूँ और अब तुम दुबारा भिक्षा भी नहीं माँगते, फिर भी बहुत मोटे हो। आजकल कैसे खाना- पीना चलाते हो?’ इस प्रकार पूछने पर उपमन्यु ने उपाध्याय को उत्‍तर दिया-‘भगवन! मैं इन गौओं के दूध से जीवन निर्वाह करता हूँ।’ (यह सुनकर) उपाध्याय ने उससे कहा- ‘मैंने तुम्हें दूध पीने की आज्ञा नहीं दी है, अतः इन गौओं के दूध का उपयोग करना तुम्हारे लिये अनुचित है।' उपमन्यु ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर दूध न पीने की भी प्रतिाज्ञा कर ली और पूर्ववत गोपालन करता रहा। एक दिन गोचारण के पश्चात् वह पुनः उपाध्याय के घर आया और उनके सामने खड़े होकर उसने नमस्कार किया। उपाध्याय ने अब भी उसे हृष्ट- पुष्ट ही देखकर पूछा ‘बेटा उपमन्यु! तुम भिक्षा का अन्न नहीं खाते, दुबारा भिक्षा ‘नहीं माँगते और गौओं का दूध भी नहीं पिते; फिर भी बहुत मोटे हो। इस समय कैसे निर्वाह करते हो ?’[2]

इस प्रकार पूछने पर उसने उपाध्याय को उत्तर दिया- ‘भगवन! ये बछड़े अपनी माताओं के स्तनों का दूध पीते समय जो फेन उगल देते हैं, उसी को पी लेता हूँ। यह सुनकर उपाध्याय ने कहा-‘ये बछड़े उत्तम गुणों से युक्त हैं, अतः तुम पर दया करके बहुत- सा फेन उगल देते होंगे। इसलिये तुम फेन पीकर तो इन सभी बछड़ों की जीविका में बाधा उपस्थित करते हो, अतः आज से फेन भी न पिया करो।’ उपमन्यु ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसे न पीने की प्रतिज्ञा कर ली और पूर्ववत गौओं की रक्षा करने लगा। इस प्रकार मना करने पर उपमन्यु न तो भिन्न अन्न खाता, न दुबारा भिक्षा लाता, न गौओं का दूध पीता और न बछड़ों के फेन को ही उपयोग में लाता था (अब वह भूखा रहने लगा)। एक दिन वन में भूख से पीड़ित होकर उसने आक के पत्ते चबा लिये। आक के पत्त खारे, तीखे, कड़वे और रूखे होते हैं। उनका परिणाम तीक्ष्ण होता है (पाचनकाल में वे पेट के अन्दर आग की ज्वाला सी उठा देते हैं )। अतः उनको खाने से उपमन्यु की आँखो की ज्योति नष्ट हो गयी। वह अन्धा हो गय। अन्धा होने पर भी वह इधर‌- उधर घूमता रहा; अतः कुएँ में गिर पड़ा। तदनन्तर जब सूर्यदेव अस्ताचल की चोटी पर पहुँच गये, तब भी उपमन्यु गुरु के घर पर नहीं आया, तो उपाध्याय ने शिष्यों से पूछा-‘उपमन्यु क्यों नहीं आया ?’ वे बोले वह तो गाय चराने के लिये वन में गया था।

तब उपाध्याय ने कहा-‘मैने उपमन्यु की जीविका के सभी मार्ग बन्द कर दिये हैं, अतः निश्चय ही वह रूठ गया है; इसीलिये इतनी देर हो जाने पर भी वह नहीं आया, अतः हमें चलकर उसे खोजना चाहिये।’ ऐसा कहकर शिष्यों के साथ वन में जाकर उपाध्याय ने उसे बुलाने के लिये आवाज दी-‘ओ उपमन्यु! कहाँ हो बेटा! चले आओ।' उसने उपाध्याय की बात सुनकर उच्च स्वरं में उत्तर दिया- ‘गुरुजी! मैं कुएँ में गिर पड़ा हूँ।’ तब उपाध्याय ने उससे पूछा-‘वत्स! तुम कुएँ मे कैसे गिर गये ?’ उसने उपाध्याय को उत्तर दिया-‘भगवन! मैं आक के पत्ते खाकर अन्धा हो गया हूँ; इसीलिये कुएँ में गिर गया।' तब उपाध्याय ने कहा-‘वत्स! दोनों अश्विनी कुमार देवताओं के वैद्य हैं।' तुम उन्हीं की स्तुति करो। 'वे तुम्हारी आँखे ठीक कर देंगे।’ उपाध्याय के ऐसा कहने पर उपमन्यु ने अश्विनी कुमार नामक दोनों देवताओं की ऋग्वेद के मन्त्रों द्वारा स्तुति प्रारम्भ की। हे अश्विनी कुमारों! आप दोनों सृष्टि से पहले विद्यमान थे। आप ही पूर्वज हैं। आप ही चित्रभानु हैं। मैं वाणी और तप के द्वारा आपकी स्तुति करता हूँ; क्योंकि आप अनन्त हैं। दिव्य स्वरूप हैं। सुन्दर पंख वाले दो पक्षियों की भाँति सदा साथ रहने वाले हैं। रजोगुण शून्य तथा अभिमान से रहित हैं। सम्पूर्ण विश्व में आरोग्य का विस्तार करते हैं। सुनहरे पंख वाले दो सुन्दर विहंगमों की भाँति आप दोनों बन्धु बड़े सुन्दर हैं। पारलौकिक उन्नति के साधनों से सम्पन्न हैं। नासत्य तथा दस्त्र-ये दोनों आपके नाम हैं। आपकी नासिका बड़ी सुन्दर है। आप दोनों निश्चित रूप से विजय प्राप्त करने वाले हैं। आप ही विवस्वान (सूर्यदेव) के सुपुत्र हैं; अतः स्वयं ही सूर्यरूप में स्थित हो, दिन तथा रात्रिरूप काले तन्तुओं से संवत्सर रूप वस्त्र बुनते रहते हैं और उस वस्त्र द्वारा वेगपूर्वक देवयान और पितृयान नामक सुन्दर मार्गो को प्राप्त करते हैं।[3]

परमात्मा की कालशाक्ति ने जीवरूपी पक्षी को अपना ग्रास बना रखा है। आप दोनों अश्विनी कुमार नामक जीवन्मुक्त महापुरुषों ने ज्ञान देकर कैवल्य रूप महान सौभाग्य की प्राप्ति के लिये उस जीव को काल के बन्धन से मुक्त किया है। माया के सहवासी अत्यन्त अज्ञानी जीव जब तक राग आदि विषयों से आक्रान्त हो अपनी इन्द्रियों के समक्ष नतमस्तक रहते हैं, तब तक वे अपने आपको शरीर से आवद्ध ही मानते हैं। दिन एवं रात-ये मनावांछित फल देने वाली तीन सौ साठ दुधारू गौएँ हैं। वे सब एक ही संवत्सररूपी बछड़े को जन्म देती और उसको पुष्ट करती हैं। वह बछड़ा सबका उत्पादक और संहारक है। जिज्ञासु पुरुष उक्त बछड़े को निमित्त बनाकर उन गौओं से विभिन्न फल देने वाली शास्त्रविहित क्रियाएँ दुहते रहते हैं, उन सब क्रियोओं का एक (तत्त्वज्ञान की इच्छा) ही दोहनीय फल है। पूर्वोक्त गौओं को आप दोनों अश्विनी कुमार ही दुहते हैं। हे अश्विनी कुमार! इस कालचक्र की एकमात्र संवत्सर ही नाभि है, जिस पर रात और दिन मिलाकर सात सौ बीस अरे टिके हुए हैं। वे सब बारह मासरूपी प्रधियों (अरों को थामने वाले पुट्ठों) में जुड़े हुए हैं। अश्विनी कुमारों! यह अविनाशी एवं मायामय कालचक्र बिना नेमिकं ही अनियत गति से घूमता तथा इहलोक ओर परलोक दोनों लोकों की प्रजाओं का विनाश करता रहता है। अश्विनी कुमारों! मेष आदि बारह राशियाँ जिसके बारह अरे, छहों ऋतुएँ जिसकी छः नाभियाँ हैं और संबत्सर जिसकी एक धुरी है, व एकमात्र कालचक्र सब और चल रहा है। यही कर्मफल को धारण करने वाला आप दोनों मुझे इस कालचक्र से मुक्त करें, क्योंकि मैं यहाँ जन्म आदि के दु;ख से अत्यन्त कष्ट पा रहा हूँ। हे अश्विनी कुमारों! आप दोनों मे सदाचार बाहुल्य है। आप अपने सुयश से चन्द्रमा, अमृत तथा जल की उज्ज्वलता को भी तिस्कृत कर देते हैं। इस समय मेरु पर्वत को छोड़ कर आप पृथ्वी पर सानन्द विचर रहे हैं। आनन्द और बल की वर्षा करने के लिये ही आप दोनों भाई दिन में प्रस्थान करते हैं। हे अश्विनी कुमारों! आप दोनों ही सृष्टि के प्रारम्भ काल में पूर्वादि दसों दिशाओं को प्रकट करके उनका ज्ञान कराते हैं। उन दिशाओं के मस्तक अर्थात अन्तरिक्ष लोक में रथ से यात्रा करने वाले तथा सबको समान रूप से प्रकाश देने वाले सूर्यदेव का और आकाश आदि पाँच भूतों का भी आप ही ज्ञान कराते हैं। उन-उन दिशाओं में सूर्य का जाना देखकर ऋषि लोग भी उनका अनुसरण करते हैं तथा देवता और मनुष्य (अपने अधिकार के अनुसार) स्वर्ग या मृत्युलोक की भूमि का उपयोग करते हैं। हे अश्विन कुमारों! आप अनेक रंग की वस्तुओं, के सम्मिश्रण से सब प्रकार की औषधियाँ तैयार करते हैं, जो सम्पूर्ण विश्व का पोषण करती हैं। वे प्रकाशमान औषधियाँ सदा आपका अनुसरण करती हुई आपके साथ ही विचरती हैं। देवता और मनुष्य आदि प्राणी अपने अधिकार के अनुसार स्वर्ग और मृत्युलोक की भूमि में रहकर उन औषधियों का सेवन करते हैं। अश्विनी कुमारों! आप ही देानों ‘नासत्य’ नाम से प्रसिद्ध हैं। मैं आपकी तथा आपने जो कमल की माला धारण कर रखी है, उसकी पूजा करता हूँ। आप अमर होने के साथ ही सत्य का पोषण और विस्तार करने वाले हैं। आपके सहयोग के बिना देवता भी उस सनातन सत्य की प्राप्ति में समर्थ नहीं हैं।[4]

युवक माता-पिता संतानोत्पत्ति के लिये पहले मुख से अन्न रूप गर्भ धारण करते हैं। तत्पश्चात् पुरुषों में वीर्य रूप में और स्त्री में रजोरूप में परिणत होकर वह अन्न जड़ शरीर बन जाता है। तत्पश्चात् जन्म लेने वाला गर्भस्थ जीव उत्पन्न होते ही, माता के स्तनों का दूध पीने लगता है। हे अश्विनी कुमारों! पूर्वोक्त रूप से संसार बन्धन में बँधे हुए जीवों को आप तत्त्वज्ञान देकर मुक्त करते हैं। मेरे जीवन-निर्वाह के लिये मेरी नेत्रेन्द्रिय को भी रोग से मुक्त करें। अश्विनी कुमारों! मैं आपके गुणों का बखान करके आप दोनों की स्तुति नहीं कर सकता। मैं इस समय नेत्रहीन (अन्धा) हो गया हूँ। रास्ता पहचानने में भूल हो जाती हैं; इसलिए इस दुर्गम कूप में गिर पड़ा हूँ। आप दोनों शरणागतवत्सल देवता हैं, अतः मैं आपकी शरण लेता हूँ। इस प्रकार ‘उपमन्यु के स्तवन करने पर दोनों अश्विनी कुमार वहाँ आये और उससे बोले-‘उपमन्यु! हम तुम्हारे ऊपर बहुत प्रसन्न हैं। यह तुम्हारे खाने के लिये पूआ है, इसे खा लों।' उनके ऐसा कहने पर उपमन्यु बोला-‘भगवन! आपने ठीक कहा है, तथापि मैं गुरुजी को निवेदन किये बिना इस पूए को अपने उपयोग में नहीं ला सकता।' तब दोनों अश्विनी कुमार बोले-‘वत्स! पहले तुम्हारे उपाध्याय ने भी हमारी इसी प्रकार स्तुति की थी। उस समय हम ने उन्हें जो पूआ दिया था, उसे उन्होंने अपने गुरुजी को निवेदन किये बिना ही काम में ले लिया था। तुम्हारे उपाध्याय ने जैसा किया है, वैसा ही तुम भी करों।' उनके ऐसा कहने पर उपमन्यु ने उत्तर दिया- ‘इसके लिये तो आप दोनों अश्विनी कुमारों की मैं बड़ी अनुनय- विनय करता हूँ। गुरुजी से निवेदन किये बिना मैं इस पूए को नहीं खा सकता’। तब अश्विनी कुमार उससे बोले, ‘तुम्हारी इस गुरुभक्ति से हम बड़े प्रसन्न हैं। तुम्हारे उपाध्याय के दाँत काले लोहे के समान है। तुम्हारे दाँत सुवर्णमय हो जायँगे। तुम्हारी आँखे भी ठीक हो जायेंगी और तुम कल्याण के भागी भी होओगे।' अश्विनी कुमारों के ऐसा कहने पर उपमन्यु को आँखें मिल गयीं और उसने उपाध्याय के समीप आकर उन्हें प्रणाम किया। तथा सब बातें गुरुजी से कह सुनायीं। उपाध्याय उसके ऊपर बड़े प्रसन्न हुए। और उससे बोले-‘जैसा अश्विनीकुमारों ने कहा हैं, उसी प्रकार तुम कल्याण के भागी होओगे।' ‘तुम्हारी बुद्धि में सम्पूर्ण वेद और सभी धर्मशास्त्र स्वतः स्फुरित हो जायँगे।’ इस प्रकार यह उपमन्यु की परीक्षा बतायी गयी।[5]



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 3 श्लोक 1-16
  2. महाभारत आदि पर्व अध्याय 3 श्लोक 33-47
  3. महाभारत आदि पर्व अध्याय 3 श्लोक 48-58
  4. महाभारत आदि पर्व अध्याय 3 श्लोक 59-66
  5. महाभारत आदि पर्व अध्याय 3 श्लोक 67-80

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सम्मान | द्रोण का शिष्यों द्वारा द्रुपद पर आक्रमण | अर्जुन का द्रुपद को बंदी बनाकर लाना | द्रोण द्वारा द्रुपद को आधा राज्य देकर मुक्त करना | युधिष्ठिर का युवराज पद पर अभिषेक | पाण्डवों के शौर्य, कीर्ति और बल के विस्तार से धृतराष्ट्र को चिन्ता | कणिक का धृतराष्ट्र को कूटनीति का उपदेश
जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत | ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार | ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना | ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन | कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना | कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना | कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत | भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव | भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना | भीम और वकासुर का युद्ध | वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना | द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत | द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म | कुन्ती का पांचाल देश में जाना | व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना | पाण्डवों की पांचाल यात्रा | अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता | राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना | तपती और संवरण की बातचीत | वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति | गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना | वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव | शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना | कल्माषपाद का शाप से उद्धार | वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति | शक्ति पुत्र पराशर का जन्म | पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण | और्व और पितरों की बातचीत | पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति | कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप | पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता | धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा | धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय | पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति | भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह | द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति | विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन | धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना | पाण्डवों का हस्तिनापुर आना | इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण | श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान | पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन | नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव | सुन्द-उपसुन्द की तपस्या | सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय | तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान | तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई | तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान | पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग | अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन | अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण | अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार | वर्गा की आत्मकथा | अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना | यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

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