श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 139

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग धनाश्री

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नंद नंदन मुख देखो नीके।
अंग अंग प्रति कोटि माधुरी निरखि होत सुख जी के ॥1॥
सुभग स्त्रवन कुंडल की आभा झलक कपोलनि पी कें।
दह दह अमृत मकर क्रीडत मनु यह उपमा कछु ही कें ॥2॥
औ अंग की सुधि नहि जानौ करे कहति हाँ लीके।
सूरदास प्रभु नटवर काछे रहत है रति पति बीके ॥3॥

(गोपी कहती है-) नंद का मुख भली प्रकार देखो, जिसके अंग प्रत्यंग में असीम माधुर्य है और जिसे देख कर ह्र्दय को आनंद होता है ।मनोहर कानों के कुण्डलों की कांति प्यारे के कपोलों पर (कुछ ऐसी) झलक रही है, मानो अमृत के दो सरोवरों में मगर खेल रहे हों । यही उपमा इनकी कुछ चित्त में जँचती है । लकीर खीच कर कहती हूँ (मेरी यह बात सर्वथा सत्य है कि) दूसरे किसी अंग का मुझे पता नहीं है (मेरे नेत्र तो कपोलों पर ही लगे रहे )। ये सूरदास के स्वामी नटवर-वेष बनाये रहते है, उस समय (इनको देखकर) कामदेव भी इनके हाथों बिक जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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