श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 121

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग सोरठ

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निरखि सखि ! सुंदरता की सींवा।
अधर अनूप मुरलिका राजति लटकि रहति अध ग्रीवा ॥1॥
मंद मंद सुर पूरत मोहन राग मलार बजावत।
कबहूँ रीझि मुरलि पै गिरिधर आपुहिं रस भरि गावत ॥2॥
हँसत लसत दसनावलि पंगति ब्रज बनिता मन मोहत।
मरकत मनि पुट बिच मुकुताहल बँदन भरे मनु सोहत ॥3॥
मुख बिकसत सोभा इक आवति मनु राजीव प्रकास।
सूर अरुन आगमन देखि कैं प्रफुलित भए हुलास ॥4॥

( गोपी कह रही है- ) सखी ! सुन्दरताकी सीमा देख ! अनुपम ओंठोंपर वंशी शोभा दे रही है ( जिससे ) कण्ठ आधा झुका हुआ है । मन्द कोमल स्वर भरकन मोहन मलार राग बजाते और कभी वे गिरिधारी मुरलीपर रीझकर अपने-आप आनन्दसे उमंगमे आकर गाते है । हँसते समय दाँतोंकी पंक्तियाँ जो शोभा देती है वह व्रजनारियोंके मनको मोह लेती है । ( उस समय आपके दाँतोकी शोभा ऐसी लगती है ) मानो नीलम ( मरकत ) मणिके डिब्बेमे सिन्दूर-भरे मोती शोभा दे रहे हो । मुखके खिलनेपर एक ऐसी शोभा बन आती है जैसे वह खिला कमल हो । सूरदासजी कहते है- ( मुझे वह खिला कमल ऐसा ज्ञात हुआ कि ) अरुणोदयको आता देखकर उल्लाससे प्रफुल्लित हो उठा हो ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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