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श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग सोरठ108 ( गोपी कह रही है- ) सखी ! सुन्दरताकी सीमा देख ! अनुपम ओंठोंपर वंशी शोभा दे रही है ( जिससे ) कण्ठ आधा झुका हुआ है । मन्द कोमल स्वर भरकन मोहन मलार राग बजाते और कभी वे गिरिधारी मुरलीपर रीझकर अपने-आप आनन्दसे उमंगमे आकर गाते है । हँसते समय दाँतोंकी पंक्तियाँ जो शोभा देती है वह व्रजनारियोंके मनको मोह लेती है । ( उस समय आपके दाँतोकी शोभा ऐसी लगती है ) मानो नीलम ( मरकत ) मणिके डिब्बेमे सिन्दूर-भरे मोती शोभा दे रहे हो । मुखके खिलनेपर एक ऐसी शोभा बन आती है जैसे वह खिला कमल हो । सूरदासजी कहते है- ( मुझे वह खिला कमल ऐसा ज्ञात हुआ कि ) अरुणोदयको आता देखकर उल्लाससे प्रफुल्लित हो उठा हो । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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