श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 108

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

Prev.png

राग गौरी

95
नंद नँदन बृंदावन चंद।
जदुकुल नभ तिथि दुतिय देवकी प्रगटे त्रिभुवन बंद ॥1॥
जठर कुहू तैं बिहरि बारुनी दिसि मधुपुरी सुछंद।
बसुद्यौ संभु सीस धरि आन्यौ गोकुल आनँद कंद ॥2॥
ब्रज प्राची राका तिथि जसुमति सरस सरद रितु नंद।
उडगन सकल सखा संकरषन तम कुल दनुज निकंद ॥3॥
गोपी जन चकोर चित बाँध्यौ निमि निवारि पल द्वंद।
सूर सुदेस कला षोडस परिपूरन परमानंद ॥4॥

( सखी कहती है-सखी ! ) श्रीनन्दनन्दन वृन्दावनके चन्द्रमा है । यदुकुलरुपी आकाशमे माता देवकीरुपी द्वितीया तिथिमे वे त्रिभुवनके वन्दनीय प्रकट हुये हैं। मथुरारुपी पश्चिम दिशामे ( माताके ) गर्भरुप अमावस्याकी रात्रिमे स्वतन्त्रतापूर्वक विहार ( निवास ) कर लेनेके बाद वसुदेवजीरुपी शंकर मस्तकपर रखकर इन आनन्दकन्दको गोकुल लाये । व्रज पूर्व दिशा यशोदाजी पूर्णिमा तिथिके समान और नन्दजी रसमय शरद ऋतु है । सभी सखा तथा बलरामजी तारागण है और चन्द्ररुप मोहन अन्धकारस्वरुप असुरकुलको नष्ट करनेवाले है । चकोरोंमे समान गोपियोंने पलकोंका गिरना-उठना बंद करके ( अपलक देखते हुए इनमे ) चित्त लगाया है । सूरदासजी कहते है कि षोडश कलाओंसे भली प्रकार परिपूर्ण ( ये ) परमानन्द ( यहाँ प्रकट ) है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः