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श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग गौरी95 ( सखी कहती है-सखी ! ) श्रीनन्दनन्दन वृन्दावनके चन्द्रमा है । यदुकुलरुपी आकाशमे माता देवकीरुपी द्वितीया तिथिमे वे त्रिभुवनके वन्दनीय प्रकट हुये हैं। मथुरारुपी पश्चिम दिशामे ( माताके ) गर्भरुप अमावस्याकी रात्रिमे स्वतन्त्रतापूर्वक विहार ( निवास ) कर लेनेके बाद वसुदेवजीरुपी शंकर मस्तकपर रखकर इन आनन्दकन्दको गोकुल लाये । व्रज पूर्व दिशा यशोदाजी पूर्णिमा तिथिके समान और नन्दजी रसमय शरद ऋतु है । सभी सखा तथा बलरामजी तारागण है और चन्द्ररुप मोहन अन्धकारस्वरुप असुरकुलको नष्ट करनेवाले है । चकोरोंमे समान गोपियोंने पलकोंका गिरना-उठना बंद करके ( अपलक देखते हुए इनमे ) चित्त लगाया है । सूरदासजी कहते है कि षोडश कलाओंसे भली प्रकार परिपूर्ण ( ये ) परमानन्द ( यहाँ प्रकट ) है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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