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गोकुल गाउँ रसीले पिय कौ।
मोहन देखि मिटत दुख जिय कौ ॥1॥
मोरमुकुट कुंडल बनमाला।
या छबि सौं ठाढे नँदलाला ॥2॥
कर मुरली पीतांबर सौहे।
चितवत ही सब कौ मन मोहै ॥3॥
मन मोहियौ इन साँवरे हो चकित सी डोलत फिरौ।
और कछु न सुहाइ तन मन बैठि उठि गिरि गिरि परौं ॥4॥
मदन बान सुमार लागे जाइ परि न कछू कही।
और कछू उपाइ नाही स्याम बैद बुलावही ॥5॥
मैं तो तजी लाज गुरुजन की।
अब मोहि सुधि न परै या तन की ॥6॥
लोग कहै यह भइ है बौरी।
सुत पति छाँडि फिरति बन दौरी ॥7॥