श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 104

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग पूरबी

93
चारु चितौजिन सु चंचल डोल।
कहि न जाति मन मैं अति भावति
कछु जु एक उपजति गति गोल ॥1॥
मुरली मधुर बजावत गावत
चलत करज अरु कुंडल लोल।
सब छबि मिलि प्रतिबिंब बिराजत
इंद्रनील मनि मुकुर कपोल ॥2॥
कुंचित केस सुगंध सुबसि मनु
उडि आए मधुपनि के टोल।
सूर सुभ्रुव नासिका मनोहर
अनुमानत अनुराग अमोल ॥3॥

( सखी कहती है- मोहनका ) मनोहर ढंगसे देखनेकी तथा अत्यन्त चञ्चल नेत्रोंकी शोभा कही नही जाती ( यद्यपि ) वह मनको बहुत भाती है; ( क्योंकि उन्हे देखकर हृदयमे ) एक ( अद्भुत ) हलचल उत्पन्न हो जाती है । मुरली मधुर स्वरमे बजाना गाना हाथ चलाना तथा कुण्डलोंका हिलना - इन सबकी छटाका प्रतिबिम्ब एकत्र होकर ही इन्द्रनील मणिके दर्पणके समान कपोलोंमे ( बहुत सुन्दर ) शोभा देता है । घुँघराले केश ऐसे है मानो सुगन्धके वशीभूत होकर भौंरोंके झुंड उडकर आये हो । सूरदासजी कहते है कि सुन्दर भौंहे और मनोहर नासिका अमूल्य प्रेमका अनुमान करा देती है ( कि अमूल्य-असीम प्रेमके ये ही आधार है ) ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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