श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 103

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग कल्यान

92
जब तै निरखे चारु कपोल।
तब तैं लोक लाज सुधि बिसरी दैं राखे मन ओल ॥1॥
निकसे आइ अचानक तिरछे पहरे पीत निचोल ।
रतन जटित सिर मुकुट बिराजत मनिमै कुंडल लोल ॥2॥
कहा करौं बारिज मुख ऊपर बिथके पटपद जोल।
सूर स्याम करि यह उतकरषा बस कीन्ही बिनु मोल ॥3॥

( गोपी कहती है- ) जबसे ( श्यामके ) सुन्दर कपोल देखे तभीसे लोकलज्जाका ध्यान छूट गया और मन ( उन्हे ) जमानतमें दे रखा है । अचानक पीताम्बर पहने त्रिभंगरुपमे इधरसे आ निकले; ( उस समय उनके ) मस्तकपर रत्नजटित मुकुट विराजमान था मणिमय कुण्डल चञ्चल हो रहे ( हिल रहे ) थे । क्या करुँ कमलमुखपर ( बिखरी अलकेरुप ) थके हुए भौंरोंका समूह दे रहा था । सूरदासजी कहते है- श्यामसुन्दरने ( अपने रुपकी ) यह अभिवृद्धि करके ( मुझे ) बिना मूल्यके ही वश कर लिया ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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