श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 97

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग कल्यान

86
आवत मोहन धेनु चराए।
मोर मुकुट सिर उर बनमाला
हाथ लकुट गो रज लपटाए ॥1॥
कटि कछनी किंकिनि धुनि बाजति
चरन चलत नूपुर रव लाए ।
ग्वाल मंडली मध्य स्याम घन
पीत बसन दामिनी लजाए ॥2॥
गोप सखा आवत गुन गावत
मध्य स्याम हलधर छबि छाए।
सूरदास प्रभु असुर सँघारे
ब्रज आवत मन हरष बढाए ॥3॥

( सखी कहती है- ) मोहन गाय चराकर आ रहे है । मस्तकपर मयूरपिच्छका मुकुट है वक्षःस्थलपर वनमाला है हाथमे छडी है और गायोंके खुरसे उडी धूलि लिपटाए हुए है । कमरमे कछनीके ऊपर किंकिणी मधुर ध्वनिसे बज रही है तथा चलते समय चरणोंमे नूपुरका शब्द हो रहा है । गोपबालकोंकी मण्डलीके बीच मेघके समान श्यामसुन्दर पीताम्बरके द्वारा बिजलीको भी लज्जित कर रहे है । गोप-सखा गुणगान करते आ रहे है बीचमे स्याम और बलराम सुशोभित है । सूरदासजी कहते है कि मेरे स्वामी ( वनमे ) असुर मारकर मनमे प्रसन्नताको बढाते हुए व्रज आ रहे है ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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