प्रेम सत्संग सुधा माला
1. अपनीजान में भगवत्प्राप्ति की लालसा के अतिरिक्त अन्य सम्पूर्ण सांसारिक कामनाओं को सर्वथा विसर्जित करने की पूरी-पूरी चेष्टा करें। 2. इस प्रयास में असफल होने पर उनसे- चाहे, वह कामना कैसी भी हो- उनसे ही, लाज-संकोच छोड़कर बता दें। किंतु उन्हें बाध्य करने की भूल न करें। उन पर ही छोड़ दें; वेपूरी करें तो ठीक, नहीं तो ठीक। पर फिर उसके लिये दूसरे के आगे हाथ न पसारें। 3. उनकी प्रत्येक आज्ञा के पीछे, प्रत्येक के पालन में पूरी-पूरी तत्परता से काम लें। किंतु यह ध्यान रखना चाहिये कि असली संत कभी भी असद्-रूपात्मक आज्ञा देते ही नहीं। कभी हमें यहदीखे कि यह आज्ञा तो असत्-प्रेरणात्मक है तो उसका पालन कदापि न करें। वे उसके न पालन से ही वस्तुतः प्रसन्न होंगे- यदि वे असली संत हैं तो। 4. मनमानी चेष्टा- साधनात्मक या व्यावहारिक- बिलकुल न करें; जो भी करे, उनसे पूछकर करें। 5. उनसे कभी भी- स्वप्न में भी, जाग्रत् की तो बात ही क्या है- कोई-सा, तनिक भी कपट न करें, न करें। एक बात और याद रखनी चाहिये- असली संत पागल कुत्ते की तरह होते हैं। पागल कुत्ते के काटने पर उसके विष का असर तुरंत नहीं होता- उसके लिये कुछ समय अपेक्षित होता है। वैसे ही यदि तनिक-सी भी श्रद्धा लेकर, कभी भी, एक बार भी हम उनके दृष्टिपथ में आ गये हंह तो उन्होंने भी अपनी अहैतुक की कृपा से परिपूर्ण आँख रूपी दाँतों को हमारे तन में, इन्द्रियों में, मन में, बुद्धि में, अहंता में गड़ा ही दिया है। पागल कुत्ते का काटा हुआ व्यक्ति कालान्तर में कुत्ते की भाँति ‘हू-हू’ करने लगता है- यहाँ तो इसका इलाज भी सम्भव होता है। किंतु असली संत की आँखों से निकलकर कृपा भरे दाँत जिसकोछू गये हैं- वह देर-सबेर- संत बनकर ही रहेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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