श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
पंद्रहवाँ अध्याय
इति एतत् पुरुषात्तमत्ववेदनं पूजयति।
इस प्रकार इस ‘पुरुषोत्तमत्व’ के ज्ञान की स्तुति करते हैं।
इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृकृत्यश्च भारत॥20॥
निष्पाप अर्जुन! इस प्रकार यह गुह्यतम शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया है। इसे जानकर पुरुष बुद्धिमान् और कृतकृत्य हो जाता है।।20।।
ऊँ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्माविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णाअर्जुनसंवादे
पुरुषोत्तम योगो नाम पंचदशोऽध्यायः।।15।।
इत्थं मम पुरुषोत्तमत्वप्रतिपादनं सर्वेषां गुह्यानां गुह्यतमम् इदं शास्त्रं त्वम् अनघतया योग्यतम इति कृत्वा मया तव उक्तम्। एतद् बुद्ध्वा बुद्धिमान् स्यात् कृतकृत्यः च मां प्रेप्सुना उपादेया या बुद्धिः सा सर्वा उपात्ता स्यात्। यत् च तेन कर्तव्यम्, तत् च सर्व कृतं स्याद् इत्यर्थः।
इस प्रकार मेरे पुरुषोत्तमत्व का प्रतिपादन करने वाला यह शास्त्र समस्त गुप्त रखने योग्य पदार्थों में गुप्ततम है। तू निष्पाप होने के कारण श्रेष्ठ अधिकारी है, ऐसा समझकर मैंने तुझसे यह कहा है। इसको समझ कर मनुष्य बुद्धिमान् और कृतकृत्य हो जाता है। अभिप्राय यह है कि मुझे प्राप्त करने की इच्छा वाले के लिये जो बुद्धि उपादेय है, वह सब-की-सब उसे प्राप्त हो जाती है और उसके लिये जो कर्तव्य है, वह सब किया हुआ हो जाता है। (उसके कर्तव्य की स्वयमेव पूर्ति हो जाती है)।
अनेन श्लोकेन अनन्तरोक्तं पुरुषोत्तमविषयं ज्ञानं शास्त्रजन्यम् एव एतत् सर्व करोति; न तु साक्षात्काररूपम् इति उच्यते।।20।।
इस श्लोक से यह कहा जाता है कि उपर्युक्त पुरुषोत्तमविषयक शास्त्रजनित ज्ञान ही उपर्युक्त समस्त फल देने वाला है। साक्षात्कार रूप ज्ञान का यह फल है, यह कहना नहीं है।।20।।
इति श्रीमद्भगवद्रामानुजाचार्य विरचिते श्रीमद्भगवद्गीताभाष्ये पंचदशोअध्यायः।।15।।
इस प्रकार श्रीमान् भगवान् रामानुजाचार्य द्वारा रचित श्रीमद्भगवद्गीता-भाष्य के हिन्दी भाषानुवाद का पंद्रहवाँ अध्याय समाप्त हुआ है।।15।।
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