जनाबाई
| |
पूरा नाम | जनाबाई |
जन्म भूमि | गंगाखेड़ ग्राम, परभणी मंडल, मराठवाड़ा प्रदेश, महाराष्ट्र। |
अभिभावक | पिता- दमा, माता- करुंड। |
कर्म भूमि | महाराष्ट्र, भारत |
मुख्य रचनाएँ | जनाबाई के नाम पर लगभग 350 'अभंग' सकल संत गाथा में मुद्रित है। इसके अतिरिक्त 'कृष्णजन्म', 'बालक्रीड़ा', 'दशावतार', 'प्रल्हादचरित्र', 'हरिश्चंद्राख्यान', 'द्रौपदीवस्त्रहरण' ऐसी आख्यान रचना, तथा 'काकड आरती'[1], 'भारूड' (कथा), पद, पाळना (लोरी) आदि रचनाएं भी उन्होंने की हैं। |
भाषा | मराठी |
प्रसिद्धि | विट्ठल भक्त |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | जनाबाई की काव्य-भाषा सर्वसामान्य लोगों के हृदय को छू लेती है। महाराष्ट्र के गांव-गांव में स्त्रियां चक्की पीसते हुए, ओखली में धान कूटते हुए उन्हीं की रचनाएं गाती हैं। |
जनाबाई सुविख्यात भक्तश्रेष्ठ श्रीनामदेव जी के घर में नौकरानी थी। घर में झाड़ू देना, बरतन माँजना, कपड़े धोना और जल भरना आदि सभी काम उसे करने पड़ते थे। भारत की महाराष्ट्र भूमि ने अनेक महान संतों को जन्म दिया है। इसमें जैसे पुरुष संत हैं, वैसे ही अनेक महान स्त्री संत भी हैं। इसी परंपरा में संत जनाबाई का परिचय ‘नामयाकी दासी’ अर्थात 'संत नामदेव जी की दासी' के रूप में प्रसिद्ध है। संत जनाबाई को महाराष्ट्र एक कवयित्री के रूप में भी जानता है। उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से दास्यभक्ति, वात्सल्यभाव, योगमार्ग, इनके साथ-साथ धर्मरक्षा के लिए हुए अवतारों का कार्य भी वर्णित किया है।[2]
विषय सूची
परिचय
जनाबाई का जन्म महाराष्ट्र के मराठवाड़ा प्रदेश में परभणी मंडल के गांव गंगाखेड़ में दमा और उनकी पत्नी करुंड नाम के शूद्र जाति के विठ्ठल भक्त के घर में हुआ था। उनके पिता ने पत्नी के निधन के उपरांत जनाबाई को पंढरपुर के विठ्ठल भक्त दामाशेटी के हाथों में सौंप दिया और स्वयं भी संसार से विदा ले ली। इस प्रकार 6-7 वर्ष की आयु में ही जनाबाई अनाथ होकर दामाशेटी के घर में दासी के रूप में रहने लगीं। उनके घर में आने के उपरांत दामाशेटी को पुत्ररत्न प्राप्त हुआ, वही प्रसिद्ध संत नामदेव महाराज थे। आजीवन जनाबाई ने उन्हीं की सेवा की।[2]
हृदय में भगवद्-प्रेम का अंकुरण
ऋषि-मुनियों की सेवा में रहकर पूर्वजन्म में जैसे देवर्षि नारदजी भगवान के परम प्रेमी बन गये थे, वैसे ही भक्तवर नामदेव जी के घर में होने वाली सत्संगति तथा भगवच्चर्चा के प्रभाव से जनाबाई के सरल हृदय में भी भगवत्प्रेम का बीज अंकुरित हो गया। नामदेव ने उसे अपनी शिष्या स्वीकार किया। उसकी भगवन्नाम में प्रीति हो गयी; जिसमें जिसकी प्रीति होती है, उसे वह भूल नहीं सकता। इसी तरह जनाबाई भी भगवन्नाम को निरन्तर स्मरण करने लगी। ज्यों-ज्यों नामस्मरण बढ़ा, त्यों-ही-त्यों उसके पापपुंज जलने लगे और प्रेम का अंकुर पल्लवित होकर दृढ़ वृक्ष के रूप में परिणत होने लगा तथा उसकी जड़ सब ओर फैलने लगी।[3]
नामदेव के घर जागरण
एकादशी का दिन है, नामदेव जी के घर भक्तों की मण्डली एकत्र हुई है, रात के समय जागरण हो रहा है। नामकीर्तन और भजन में सभी मस्त हो रहे हैं। कोई कीर्तन करता है, कोई मृदंग बजाता है, कोई करताल और कोई झाँझ बजाता है। प्रेमी भक्त प्रेम में तन्मय हैं, किसी को तन-मन की सुधि नहीं है- कोई नाचता है, कोई गाता है, कोई आँसू बहा रहा है, कोई मस्त हँसी हँस रहा है। कितनी रात गयी, इस बात का किसी को खयाल नहीं है। जनाबाई भी एक कोने में खड़ी प्रेम में मत्त होकर झूम रही है। इस आनन्दाम्बुधि में डूबे रात बहुत ही जल्दी बीत गयी। उषाकाल हो गया। लोग अपने-अपने घर गये।
महत्त्वपूर्ण घटना
जनाबाई अपने घर आयी। घर आने पर जनाबाई जरा लेट गयी। प्रेम की मादकता अभी पूरी नहीं उतरी थी, वह उसी में मुग्ध हुई पड़ी रही। सूर्यदेव उदय हो गये। जनाबाई उठी और सूर्योदय हुआ देखकर बहुत घबरायी। उसने सोचा, मुझे बड़ी देर हो गयी। मालिक के घर झाड़ू-बरतन की बड़ी कठिनाई हुई होगी, वह हाथ-मुँह धोकर तुरंत काम पर चली गयी।
पूरा विलम्ब हो चुका था, जना घबराई हुई जल्दी-जल्दी हाथ का काम समाप्त करने में लग गयी। परंतु हड़बड़ाहट में काम पूरा नहीं हो पाता। दूसरे, एक काम में विलम्ब हो जाने से सिलसिला बिगड जाने से सिलसिला बिगड़ जाने के कारण सभी में विलम्ब होता है; यहाँ भी यही हुआ। झाड़ू देना है, पानी भरना है, कपड़े धोने हैं, बरतन माँजने हैं; और न मालूम कितने काम हैं।
जनाबाई कुछ काम निपटाकर जल्दी-जल्दी कपड़े लेकर उन्हें धोने के लिये चन्द्रभागा नदी के किनारे पहुँची। कपड़े धोने में हाथ लगा ही था कि एक बहुत जरूरी काम याद आ गया, जो इसी समय न होने से नामदेव जी को बड़ा कष्ट होता; अवएव वह नदी से तुरंत मालिक के घर की ओर चली। रास्ते में अकस्मात एक अपरिचिता वृद्धा स्त्री ने ने प्रेम से पल्ला पकड़कर जना से कहा- "बाई जना ! यों घबराई हुई क्यों दौड़ रही हो? ऐसा क्या काम है।" जना ने अपना काम उसे बतला दिया। वृद्धा ने स्नेहपूर्ण वचनों से कहा- "घबराओ नहीं ! तुम घर से काम कर आओ, तब तक मैं तुम्हारे कपड़े धोये देती हूँ!" जनाबाई ने कहा- "नहीं माँ ! तुम मेरे लिये कष्ट न उठाओ, मैं अभी लौट आती हूँ।" वृद्धा ने मुसकराते हुए उत्तर दिया- "मुझे इसमें कोई कष्ट नहीं होगा, मेरे लिये कोई भी काम करना बहुत आसान है; मैं सदा सभी तरह के काम करती हूँ, इससे मुझे अभ्यास है ! इस पर भी तुम्हारा मन न माने तो कभी मेरे काम में तुम भी सहायता कर देना। जनाबाई को घर पहुँचने की जल्दी थी, इधर वृद्धा के वचनों में स्नेह टपक रहा था; वह कुछ भी न बोल सकी और मन-ही-मन वृद्धा की परोपकार-वृत्ति की सराहना करती हुई चली गयी। उसे क्या पता था कि यह वृद्धा मामूली स्त्री नहीं, सच्चिदानन्दमयी जगज्जननी है !
वृद्धा ने बात-की-बात में कपड़े धोकर साफ कर दिये। कपड़ों के साथ ही उन कपड़ों को पहनने और लाने वालों का कर्ममल भी धुल गया ! थोड़ी देर में जनाबाई लौटी। धुले हुए कपड़े देखकर उसका हृदय कृतज्ञता से भर गया। उसने वृद्धा से कहा- "माता ! आज तुम्हें बड़ा कष्ट हुआ, तुम-सरीखी परोपकारिणी माताएँ ईश्वररूप ही होती हैं।" जना ! तू भूलती है। यह वृद्धा ईश्वरस्वरूपिणी नहीं हैं, साक्षात ईश्वर ही है। तेरे प्रेमवश भगवान ने वृद्धा का स्वाँग सजा है !
वृद्धा ने मुसकाते हुए कहा- "जनाबाई ! मुझे तो कोई कष्ट नहीं हुआ, काम ही कौन-सा था ! लो अपने कपड़े, मैं जाती हूँ।" इतना कहकर वृद्धा वहाँ से चल दी। जना का हृदय वृद्धा के स्नेह से भर गया था; उसे पता ही नहीं लगा कि वृद्धा चली जा रही है। जना कपड़े बटोरने लगी; इतने में ही उसके मन में आया कि ‘वृद्धा ने इतना उपकार किया है; उसका नाम-पता तो पूछ लूँ, जिससे कभी उसका दर्शन और सेवा-सत्कार किया जा सके।' वृद्धा कुछ ही क्षण पहले गयी थी। जना ने चारों ओर देखा, रास्ते की ओर दौड़ी, सब तरफ ढूँढ़ हारी; वृद्धा का कहीं पता नहीं लगा, लगता भी कैसे।
जना निराश होकर नदी-किनारे लौट आयी और वहाँ से कपड़े लेकर नामदेव के घर पहुँची। संत जना का मन वृद्धा के लिये व्याकुल था; वृद्धा ने जाते-जाते न मालूम क्या जादू कर दिया, जना कुछ समझ ही नहीं सकी। बात भी यही है। यह जादूगरनी थी भी बहुत निपुण।
पुन: गृह आगमन
सत्संग का समय था, संतमण्डली एकत्र हो रही थी; जना ने वहाँ पहुँचकर अपना हाल नामदेव जी को सुनना आरम्भ किया, कहते-कहते जना गद्गदकण्ठ हो गयी। भगवद्भक्त नामदेव जी सारी घटना सुनकर तुरंत लीलामय की लीला समझ गये और मन-ही-मन भगवान की भक्तवत्सलता की प्रशंसा करते हुए प्रेम में मग्न हो गये। फिर बोले- "जना ! तू बड़भागिनी है ! भगवान ने तुझ पर बड़ा अनुग्रह किया। वह कोई मामूली बुढ़िया नहीं थी; वे तो साक्षात नारायण थे, जो तेरे प्रेमवश बिना बुलाये ही तेरे काम में हाथ बँटाने आये थे।" यह सुनते ही जनाबाई प्रेम से रोने लगी और भगवान को कष्ट देने के कारण अपने को कोसने लगी। सारा संत-समाज आनन्द से पुलकित हो गया।
- भगवान के प्रति प्रेम
कहा जाता है कि इसके बाद भगवान के प्रति जनाबाई का प्रेम बहुत ही बढ़ गया था और भगवान समय-समय पर उसे दर्शन देकर कृतार्थ किया करते थे। जनाबाई चक्की पीसते समय भगवत्प्रेम के ‘अभंग’ गाया करती थी; गाते-गाते जब वह प्रेमावेश में सुध-बुध भूल जाती, तब उसके बदले में भगवान स्वयं पीसते और भक्तिमती जना के अभंगों को सुन-सुनकर प्रसन्न हुआ करते थे। महाराष्ट्र कवियों ने ‘जना संगे दलिले’ यानी ‘जना के साथ चक्की पीसते थे’ इस प्रकार गाया है। महाराष्ट्र-प्रान्त में जनाबाई का स्थान बहुत ही ऊँचा है।[3]
काव्य रचना
संत जनाबाई की भाव कविता भगवंत की प्रीति से ओतप्रोत है। उनके नाम पर लगभग 350 'अभंग' सकल संत गाथा में मुद्रित है। इसके अतिरिक्त 'कृष्णजन्म', 'बालक्रीड़ा', 'दशावतार', 'प्रल्हादचरित्र', 'हरिश्चंद्राख्यान', 'द्रौपदीवस्त्रहरण' ऐसी आख्यान रचना, तथा 'काकड आरती'[4], 'भारूड' (कथा), पद, पाळना (लोरी) आदि रचनाएं भी उन्होंने की हैं। संत जनाबाई के द्रौपदी स्वयंवर इन भाव मधुर आख्यानों से ही महाकवि मुक्तेश्वर जी को[5] स्फूर्ति मिली। तत्कालीन संत ज्ञानेश्वर महाराज, संत नामदेव महाराज, संत सोपान काका, संत गोरोबाकाका, संत चोखोबा, संत सेना महाराज आदि संतों के जीवन पर पद्य रचना करके संत जनाबाई ने आने वाली पीढ़ियों पर महान उपकार किए हैं। उनकी रचनाओं से समाज को ज्ञात होता है कि साधकों का रक्षण तथा दुर्जनों का विनाश कर धर्म-संस्थापना करने के हेतु भगवान अवतार धारण करते हैं। उनकी भाषा सर्वसामान्य लोगों के हृदय को छू लेती है। महाराष्ट्र के गांव-गांव में स्त्रियां चक्की पीसते हुए, ओखली में धान कूटते हुए उन्हीं की रचनाएं गाती हैं।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भोर के समय में की जाने वाली भगवान की स्तुति
- ↑ 2.0 2.1 2.2 दास्यभक्ति का एक अनूठा रूप संत जनाबाई (हिन्दी) हिन्दू जनजागृति समिति। अभिगमन तिथि: 08 दिसम्बर, 2015।
- ↑ 3.0 3.1 पुस्तक- भक्त चरितांक | प्रकाशक- गीता प्रेस, गोरखपुर | विक्रमी संवत- 2071 (वर्ष-2014) | पृष्ठ संख्या- 717
- ↑ भोर के समय में की जाने वाली भगवान की स्तुति
- ↑ संत एकनाथ महाराज के पौत्र
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज