श्रीभट्ट भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे। विक्रमीय संवत की सोलहवीं सदी के पूर्व वृन्दावन की पवित्र भूमि मधुर भक्ति से पूर्ण आप्लावित थी। इसी समय ब्रजभाषा के महान कवि रसिक श्रीभट्ट ने श्रीराधा-कृष्ण की उपासना से समाज को सरस और नवीन भक्ति-चेतना से समलंकृत कर सगुण लीला का प्रचार किया।
भक्ति साधना
श्रीभट्ट ब्रज और मथुरा की ही सीमा में रहने को परम सुख और आनन्द का साधन समझते थे। ब्रज की लताएं, कुंज, सरिता, हरितिमा और मोहिनी छवि को वे प्राणों से भी प्रिय मानते थे। वे केशव काश्मीरी के अन्तरंग शिष्य थे। 'युगल शतक' के नाम से उन्होंने सौ पदों की रचना की थी। वे भगवान की रसरूप-माधुरी की उपासना में रात-दिन तल्लीन रहते थे। उनकी भावना परम पवित्र और शुद्ध थी। उसी के अनुरूप उन्हें समय-समय पर भगवान की नयी-नयी लीलाओं के दर्शन होते रहते थे। जब वे तन्मय होकर पद गाने लगते, तब कभी-कभी उसी के ध्यानरूप भगवान की दिव्य झांकी का साक्षात्कार हो जाता था।
एक बार श्रीभट्ट भगवती कलिन्दनन्दिनी के परम पवित्र तट पर विचरण कर रहे थे। उन्होंने नीरव और नितान्त शान्त निकुंजों की ओर दृष्टि डाली। भगवान की लीला-माधुरी का रस नयनों में उमड़ आया। आकाश में काली घटाएं छा गयीं। यमुना की लहरों का यौवन चंचल हो उठा। वंशीवट पर नित्य रास करने वाले राधारमण की वंशीस्वर-लहरी ने उनकी चित्तवृत्ति पर पूरा-पूरा अधिकार कर लिया। वे नन्दनन्दन और श्रीराधारानी की रसमयी छवि पर सर्वस्व समर्पण करने के लिये विकल हो उठे। सरस्वती ने उनके कण्ठदेश में करवट ली। 'सरस समीर की मन्द-मन्द गति' उनकी दिव्य संगीत-सुधा से आलोडित हो उठी। रसिक श्रीभट्ट के प्राण भगवान के दर्शन के लिए लालायित थे। वे गाने लगे-
"भीजत कब देखौं इन नैना।
स्यामाजू की सुरँग चूनरी, मोहन कौ उपरैना।"
भगवान का दर्शन
भगवान से विरह-दु:ख अब और न सहा गया। उनकी इच्छापूर्ति के लिये वे श्रीरासेश्वरी जी के सहित प्रकट हो गये। श्रीभट्ट ने देखा कि कुंज में कदम्ब के नीचे कोटि-कन्दर्प लावण्ययुक्त रास-विहारी अपनी प्रियतमा राधारानी के कन्धदेश पर कोमल कर-स्पर्श का सौन्दर्य बिखेर रहे हैं। यमुना की स्वच्छ धाराएं उनके चरण चूमने के लिये कुल की मर्यादा तोड़ देना चाहती हैं, पर बालुका की सेनाएं उन्हें विवश कर देती हैं कि वे आगे न बढ़ें। श्रीभट्ट ने अपना जीवन सफल माना। उन्होंने भगवान की दिव्य और कृपामयी झांकी को काव्यरूप देकर अपने सौभाग्य की सराहना की। रोम-रोम पुलकित हो उठा। मलार राग का भाग्य जाग उठा-
"स्यामा स्याम कुंज तर ठाढ़े, जतन कियो कछु मैं ना।
श्रीभट उमड़ि घटा चहुँ दिसि तें घिरि आई जल सेना।।"
रस साहित्य के मर्मज्ञ
"बसौ मेरे नैननि में दोउ चंद' की कान्तिमयी इच्छापूर्ति ही उनकी अतुल सम्पत्ति थी। भगवान का रस-रूप ही भवबन्धन से निवृत्त होने का कल्याणमय विधान था। श्रीभट्ट के पदों में भगवान के रस-रूप का चिन्तन अधिकता से हो सका है। उनकी रसोपासना और भक्ति-पद्धति से प्रभावित होकर अन्य रसोपासक और कवियों ने श्रीराधा-कृष्ण की निकुंज-लीला-माधुरी के स्तवन और गान से भक्ति साहित्य की श्रीवृद्धि में जो योग दिया है, वह सर्वथा स्तुत्य है। श्रीभट्ट रस-साहित्य के मर्मज्ञ और भक्त कवि थे।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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