गदाधर भट्ट

गदाधर भट्ट दक्षिणी ब्राह्मण थे। इनके जन्म संवत आदि का ठीक-ठीक पता नहीं है, पर यह बात प्रसिद्ध है कि ये श्री चैतन्य महाप्रभु को भागवत सुनाया करते थे। इसका समर्थन 'भक्तमाल' की निम्न पंक्तियों से भी होता है-

भागवत सुधा बरखै बदन, काहू को नाहिंन दुखद।
गुणनिकर गदाधार भट्ट अति सबहिन को लागै सुखद॥

श्री चैतन्य महाप्रभु का आविर्भाव संवत 1542 में और गोलोकवास 1584 में माना जाता है। अत: संवत 1584 के भीतर ही गदाधर भट्ट ने महाप्रभु से दीक्षा ली होगी।

सद्गुणों की मूर्ति

सज्‍जनता, सब प्राणियों के साथ सहज सुहृदता, दीनों के प्रति दया, मधुर वाणी, मद-लोभ-क्रोध-मत्‍सर आदि का सर्वथा अभाव, निष्‍कामभाव, सत्‍य, करुणा प्रभृति समस्‍त सद्गुणों के आधार एकमात्र श्रीहरि हैं। जिस हृदय में भगवान का प्रेम है, वहाँ यदि सद्गुण आज पूरे नहीं भी हैं तो कल निश्‍चय आयेंगे। भगवदप्रेम जहाँ हो, वहाँ कोई दुर्गुण टिक नहीं सकता, परन्‍तु जहाँ भगवान का प्रेम, उन सर्वेश के प्रति आस्‍था और विश्‍वास नहीं, वहाँ यदि सद्गुण हो भी तो उनकी नींव बालू पर है। वे कब स्‍वार्थ के धक्‍के से हवा हो जायंगे, इसका कुछ ठिकाना नहीं। सद्गुण तो भगवान में ही हैं, फिर जिनके हृदय में प्रेम के दृढ़ बन्‍धन में बंधे वे लीलामय सदा विराजमान रहते हैं, वहाँ सब गुण एक साथ रहेंगे ही। गदाधर भट्ट समस्‍त सद्गुणों की मूर्ति थे। बचपन से उनमें नम्रता, दया आदि गुण उज्‍जवल रूप में प्रकट होते और बढ़ते गये। इसके साथ उन्‍हें प्रतिभा प्राप्‍त हुई। भगवान के परम प्रियजन भगवती सरस्‍वती की कृपा पाकर अपने प्रियतम प्रभु का ही तो गुणानुवाद गायेंगे।

मधुर कण्ठ

गदाधर भट्ट जी का कण्‍ठ बड़ा ही मधुर था। वे अपने बनाये भगवान की लीला, रूपमाधुरी, प्रार्थना आदि के भावपूर्ण पद बड़े प्रेम से गाया करते थे।

"सखी, हौं स्‍याम रंग रँगी।
देखि बिकाइ गई वह मूरति सूरति माहिं पगी।।
संग हुतौ अपनौ सपनौ-सौ सोइ रही रस खोइ।
जागेहुं आगें दृष्टि परै सखि नेकु न न्‍यारौ होइ।।
एक जु मेरी अंखियन में निसिद्योस रह्यौ कर भौन।
गाय चरावन जात सुन्‍यौ सखि! सो धौं कन्‍हैया कौन।।
कासौं कहौं कौन पतियाबै, कौन करै बकवाद।
कैसें के कहि जात गदाधर गूंगे कौ गुड़ स्‍वाद।।

भक्‍तवर गदाधर भट्ट का उपरोक्त पद वृन्दावन में जीव गोस्वामी ने किसी के मुख से एक दिन सुना। गदाधर जी के भावपूर्ण पद भावुकजन प्राय: कण्‍ठ कर लेते और गाया करते थे। जीव गोस्‍वामी जी पद सुनते ही भावविह्वल हो गये। रत्‍न का पारखी ही रत्‍न को पहचानता है। जीव गोस्‍वामी ने समझ लिया कि यह पद किसी सामान्‍य कवि का नहीं हो सकता। उन्‍होंने दो संतों को एक पत्र देकर गदाधर भट्ट के पास भेजा। पत्र में लिखा था- "मुझे बड़ा आश्‍चर्य है कि बिना रंगसाज के ही आप पर श्‍याम रंग चढ़ कैसे गया।"

वृन्दावन आगमन

जीव गोस्वामी द्वारा भेजे गए दोनों संत गदाधर जी के ग्राम पहुँचे। प्रात:काल का समय था। सूर्योदय हुआ नहीं था। गदाधर जी दांतौन कर रहे थे। संतों ने उनसे ही पूछा- "इस ग्राम में गदाधर भट्ट जी का मकान कौन-सा है।" गदाधर भट्ट की प्रसन्‍नता का क्‍या पूछना। आज प्रात:काल ही संतों के दर्शन हुए और वे आये भी उन्‍हीं के यहाँ हैं। संतों की सेवा का सौभाग्‍य प्राप्‍त होगा, इनके मुख से भगवान का गुणानुवाद सुनने को मिलेगा। धन्‍य है आज का दिन। आनन्‍द के भावों में निमग्‍न भट्ट जी ने सहज ही संतों से पूछा- "आप लोग कहाँ से पधारे हैं।" संतों ने उत्‍तर दिया- "हम श्रीवृन्‍दावन से आये हैं।" 'श्रीवृन्‍दावन'! भट्ट जी के श्रवणों में यह शब्‍द पड़ा और वे धड़ाम से गिर पड़े मूर्च्छित होकर। दांतौन दूर गिर गया। नेत्रों से अश्रुप्रवाह चलने लगा। विचित्र दशा हो गयी उनकी। पहले से ही हृदय में भाव उमड़ रहा था। श्रीधाम वृन्‍दावन का नाम सुनते ही वह उद्दीप्‍त हो उठा। शरीर संज्ञाहीन हो गया। दोनों संतों ने चकित होकर संभाला उन्‍हें। लोगों से पता लगा कि गदाधर भट्ट जी तो यही हैं। तब संतों ने उनके कानों के पास मुख ले जाकर जोर से कहा- "हम वृन्दावन से आपके लिये एक पत्र ले आये हैं।" पत्र का नाम कानों मे जाते ही गदाधर भट्ट उठ बैठे। जैसे उनके प्राण इसी पत्र की प्रतीक्षा करते रहे हों। पत्र को लेकर उन्‍होंने मस्‍तक से, नेत्रों से, हृदय से लगाया। पत्र को बार-बार पढ़ते, अश्रु बहाते विह्वल होते रहे। संतों का भली प्रकार सत्‍कार किया और फिर सर्वस्‍व दीन-दु:खियों को बांटकर उन संतों के साथ ही वृन्‍दावन चले आये।

श्रीमद्भागवत कथा वक्ता

गदाधर भट्ट पर श्‍याम रंग तो पहले ही चढ़ चुका था, अब वृन्दावन आकर उन्‍हें जीव गोस्वामी जैसे भक्ति-मार्ग के उद्भट रंगसाज मिल गये। वह रंग और गाढ़ा हो गया, साथ ही भक्तिशास्‍त्र का अध्‍ययन हुआ। अब वृन्‍दावन में भट्ट जी की 'श्रीमद्भागवत' की परम मधुर कथा होने लगी। उनकी कथा में प्रेमी भक्‍तों, संतों की भीड़ सदा बनी रहती थी। मधुर कण्‍ठ, भावपूर्ण हृदय, प्रतिभा के साथ भक्तिशास्‍त्र का विपुल ज्ञान। इस प्रकार गदाधर भट्ट का भागवत-व्‍याख्‍यान अद्वितीय हो गया था। वे भागवत-कथामृत की वर्षा करने वाले मेघ ही माने जाते थे और उस अमृत के पिपासु चातक उनमें प्रगाढ़ निष्‍ठा रखते थे।

प्रेरक प्रसंग-1

भट्ट जी की कथा के प्रेमी श्रोताओं में एक श्रोता थे- कल्‍याण सिंह राजपूत। कथा के निरन्‍तर श्रवण ने उनके हृदय को शुद्ध कर दिया। हृदय में जब भगवदप्रेम की अद्भुत रसधार प्रकट होती है, तब संसार के सभी विषय अपने-आप सारहीन जान पड़ते हैं। जिसने उस अद्भुत प्रेमरस का स्‍वाद पाया, उसको विषयों के रस की दुर्गन्‍ध में रुचि कैसे रह सकती है। कल्‍याण सिंह वृन्‍दावन के समीप के धौरहरा ग्राम के रहने वाले थे। नित्‍य नियमपूर्वक कथा सुनने आते थे। हृदय शुद्ध था, उसमें श्रद्धा थी, प्रेम का प्रादुर्भाव हो गया। विषयों से स्‍वत: विरक्ति हो गयी। गृहस्‍थ के कर्तव्‍य का पालन करते हुए भी वे परम विरक्‍त संयमी का जीवन व्‍यतीत करने लगे थे।

कल्‍याण सिंह की स्त्री सामान्‍य स्‍त्री ही थी। उसकी विषयासक्ति गयी नहीं थी। पति की उदासीनता का कारण उसे गदाधर भट्ट ही प्रतीत होने लगे। वह मन-ही-मन भट्ट जी से द्वेष करने लगी। काम ही प्रतिहत होने पर क्रोध बन जाता है। क्रमश: बुद्धि मारी जाती है और मनुष्‍य न करने योग्‍य कर्म पर बैठता है। यही दशा उसकी हुई। उसने सोचा कि "यदि मैं भट्ट जी को कलंकित कर सकी तो मेरे पति की उनमें अश्रद्धा हो जायगी और तब वे घर में अनुरक्‍त हो जायेंगे।" विकृतबुद्धि नारी को महापुरुष की महिमा का क्‍या पता। लीलामय प्रभु को भी अपने भक्त का महत्‍व प्रकट करना था। उस स्‍त्री ने एक गर्भवती भिक्षा मांगने वाली स्‍त्री को बीस रुपये देकर सिखा-पढ़ाकर वृन्दावन भेज दिया। गदाधर भट्ट जी की कथा हो रही थी। भक्‍तों का समुदाय एकत्र था। उसी समय वह भिक्षुणी वहाँ पहुँची। उसने सीधे भट्ट जी के समीप जाकर सबको सुनाते हुए कहा- "महाराज! आपका दिया यह गर्भ अब पूरा होने को आया। अब तो आप मेरे लिये किसी निवास की व्‍यवस्‍था कर दीजिये। इसे लिये-लिये मैं कहाँ भटकती फिरूँ।"

भिक्षुणी की बात सुनकर श्रोताओं में बड़ी सनसनी फैल गयी। कुछ लोग जोर-जोर से कहने लगे- "यह झूठ बोलती है। एक संत को किसी के बहकाने से कलंकित करना चाहती है। हम इसे मार डालेंगे।" गदाधर भट्ट जी के मुख पर हँसी आयी। दयामय प्रभु ने जगत के मिथ्‍या आदर-मान से बचाने के लिये यह व्‍यवस्‍था की है, यह सोचकर वे आनन्‍द से पुलकित हो उठे। उन्‍होंने बिना संकोच के सबको सम्‍बोधन करके कहा- "भाइयो! आप लोग रुष्‍ट न हों। इस देवी का कोई अपराध नहीं है। यह ठीक ही कहती है।" कुछ लोग आश्‍चर्य से अवाक रह गये। किसी को कुछ सूझ नहीं पड़ता था। भट्ट जी ने उस स्‍त्री से बड़े स्‍नेह से कहा- "देवी! मैं तो तुम्‍हारा नित्‍य ही स्‍मरण करता हूँ। तुम मुझे दोषी क्‍यों बताती हो। तुम कहाँ भटक रही थीं। आओ, आज अच्‍छी आयी तुम। बैठो, भगवान की कथा सुनो।"

संतों के अद्भुत चरित्र को कौन समझ सकता है। जो सर्वत्र अपने ही परम प्रिय प्रभु को देखते हैं, वे किसी का स्‍मरण नहीं करते, यह कैसे कहा जा सकता है। गदाधर भट्ट तो सब कहीं अपने उस हृदयहारी, वृन्दावन विहारी को ही देखते थे। उस स्त्री के रूप में भी अपने वही प्रियतम प्रभु उन्‍हें दीख रहे थे। परन्‍तु श्रोताओं की विचित्र दशा थी। भट्ट जी में उनकी अगाध श्रद्धा थी। इस दरिद्रा स्‍त्री के वचनों को वे कभी सत्‍य नहीं मान सकते थे। उनमें से अनेकों के नेत्रों से इस दु:ख से अश्रु चलने लगे कि हमें आज एक महापुरुष की निन्‍दा सुननी पड़ी। अन्‍त में एक संत उस स्‍त्री के पास गये। उसे एक ओर ले जाकर उन्‍होंने सत्‍य कहने के लिये समझाया। वह भिक्षुकी, वह भी मनुष्‍य ही थी। ऐसा महान पुरुष उसने देखा ही नहीं था। ऐसे कलंक की मिथ्‍या बात कहने पर भी जो न रुष्‍ट हुआ, न कड़ी बात कही, उस संत को झूठा कलंक देने आयी वह। लज्‍जा से, ग्‍लानि से उसका मस्‍तक झुक गया था। वह रो रही थी। उसने संत से सच्‍ची बात कह दी और भट्ट जी ने उसे आश्‍वासन दिया। श्रोताओं को बड़ा आनन्‍द हुआ सच्‍ची बात के प्रकट हो जाने से; किंतु कल्‍याण सिंह ने अपनी तलवार खींच ली। वे क्रोध से कांपने लगे। उनकी जिस दुष्‍टा स्‍त्री ने महापुरुष को कलंकित करने का यह असत प्रयत्‍न किया था, उसे वे तत्‍काल मार देना चाहते थे। गदाधर भट्ट ने प्रेम से कल्‍याण सिंह को रोका। उनको समझाया कि- "उस देवी ने तो मुझे एक नवीन ढंग से शिक्षा दी है कि संसार का तनिक भी संसर्ग कैसा भयानक है।"

प्रेरक प्रसंग-2

गदाधर भट्ट जी की भागवत कथा की ख्‍याति दूर-दूर तक पहुँच गयी। श्रीवृन्‍दावनधाम सदा से भगवदप्रेमी के प्रेमी भक्‍तवृन्‍दों का प्रिय केन्‍द्र रहा है। अब जो भी यात्री वृन्‍दावन आता, वह गदाधर भट्ट की कथा सुनने अवश्‍य ही पहुँचता। कहीं से एक वैष्णव महन्‍त कथा में एक दिन आये। भट्ट जी ने बड़े आदर से उन्‍हें आगे आसन दिया। महन्‍त जी ने देखा कि कथा होते समय सभी के नेत्रों से अश्रुधारा चलने लगी है। केवल उन्‍हीं के नेत्रों में अश्रु नहीं आये। इससे उन्‍हें बड़ी लज्‍जा प्रतीत हुई। दूसरे दिन महन्‍त जी जब कथा में आये, तब गुप्‍त रूप से वस्‍त्रों में महीन पिसी हुई लाल मिर्च की एक छोटी पोटली भी ले आये। कथा के समय नेत्र और मुख पोंछने के बहाने उस पोटली को वे बार-बार नेत्रों पर फेर लेते थे। लाल मिर्च नेत्रों में लगने से नेत्रों से अश्रुप्रवाह चलने लगता था। समीप बैठे एक व्‍यक्ति ने इसे ताड़ लिया। जब कथा समाप्‍त हो गयी और दूसरे सब श्रोता उठकर चले गये, तब उसने भट्ट जी से कहा- "महाराज! यह जो महन्‍त आगे बैठा था, वह बड़ा दम्‍भी है। वस्‍त्रों में मिर्च की पोटली वह लाया था और उसी को नेत्रों पर रगड़-रगड़ कर लोगों को दिखाने के लिये अश्रु बहा रहा था।"

साधारण व्‍यक्ति दूसरों के गुणों में भी दोष ढूँढना चाहते हैं, किंतु महापुरुषों के चित्‍त में ही जब दोष नहीं, दम्‍भ नहीं, तब उन्‍हें दम्‍भ और दोष दीखें कहाँ से। उन्‍हें तो सर्वत्र गुण-ही-गुण दिखायी पड़ते हैं। प्रियश्रवा भगवान के परम प्रियजन सदा सब में गुण ही देखते हैं। श्रीगदाधर भट्ट जी ने जैसे ही उस व्‍यक्ति की बात सुनी, वहाँ से तुरंत उठकर आतुरतापूर्वक उन महन्‍त जी के समीप पहुँचे और उनको प्रणिपात करके कहने लगे- "आप धन्‍य हैं। आपका भगवदप्रेम धन्‍य हैं। मैंने सुना है कि आप नेत्रों में लाल मिर्च लगाकर इसलिये नेत्रों को दण्‍ड देते हैं कि उनमें भगवदप्रेम के अश्रु नहीं आये। अब तक मैंने सुना ही था कि जो अंग भगवान की सेवा में न लगे, उनके दिव्‍य अनुराग से द्रवित या पुलकित न हो, वह दण्‍डनीय है। पर आज मैंने आपको प्रत्‍यक्ष इस आदर्श पर चलते देखा। आप-जैसे महापुरुष का दर्शन करके में कृतार्थ हो गया।" भट्ट जी ने महन्‍त जी को दोनों भुजाओं में भरकर हृदय से लगा लिया और अब तो दोनों के नेत्र झर रहे थे। दोनों के शरीर पुलकित थे। ऐसे परम भागवत के अंग स्‍पर्श से महन्‍त जी में भगवदप्रेम का स्रोत उमड़ा उठा था।

प्रेरक प्रसंग-3

एक रात्रि में गदाधर भट्ट की कुटिया में एक चोर चोरी करने घुस आया। भट्ट जी ने जो चोर को देखा तो चुपचाप पड़े रह गये। चोर को जो कुछ भी मिला, उसने बांध लिया। जब वह गठरी उठाने लगा, तब उस भारी गठरी को उठा न सका। गदाधर भट्ट तो सब देख ही रहे थे। उन्‍हें तो लग रहा था कि उनके लीलामय प्रभु जैसे गोपियों के घर में छिपकर माखन खाने जाते थे, वैसे ही आज इस वेष में उनके यहाँ आये हैं। जब उन्‍होंने देखा कि भारी गठरी चोर से सिर पर उठती नहीं, तब आसन से उठे और गठरी उसके मस्‍तक पर उठवा दी। चोर को बड़ा आश्‍चर्य हुआ। उसने पूछा कि- "अपना माल इस प्रकार उठाने वाले आप हैं कौन।" जब भट्ट जी ने अपना नाम बताया, तब तो चारे गठरी फेंककर उनके चरणों पर गिरकर रोने लगा। उसने उनका नाम सुन रखा था। ऐसे महापुरुष के यहाँ चोरी करने आने के लिये बड़ा दु:ख हुआ उसे। गदाधर भट्ट ने उसे प्रेम से समझाया- "भाई! तुम इतने दु:खी क्‍यों होते हो। तुमने प्राणों का भय छोड़कर इस अंधेरी रात्रि में यहाँ आने का कष्‍ट किया है, इतना श्रम किया हैं और यही तुम्‍हारी आजीविका है। अत: तुम इसे प्रसन्‍नता से ले जाओ। मेरी चिन्‍ता मत करो। जिसने तुमको यहाँ भेजा है, जो इस सारे जगत का पालन करता है, उसने मेरे लिये पहले से व्‍यवस्‍था कर रखी होगी। तुम इधर यह सब ले जाओगे और सबेरा होते ही इससे दस गुना वह मेरे पास भेज देगा।" चोर फूट-फूटकर रोने लगा। करुणामय संतों का हृदय तो नवनीत से भी कोमल होता है। भट्ट जी ने उस पर कृपा की। चोरी तो छूट ही गयी, भगवान का अनुराग भी प्राप्‍त हुआ। वह परम भागवत हो गया।

गदाधर भट्ट का भगवद विग्रह की सेवा-पूजा में अत्‍यधिक अनुराग था। पूजा की समस्‍त सामग्री वे स्‍वयं प्रस्‍तुत करते थे। भगवदकैंकर्य का कोई भी काम वे दूसरों से लेना नहीं चाहते थे। एक बार भगवदप्रसाद प्रस्‍तुत करने के लिये आप अपने हाथ से चौका लगा रहे थे। इतने में सेवक ने आकर एक धनी श्रद्धालु का नाम बताते हुए कहा- "वे बहुत-सी भेंट लेकर आपके पास आ रहे हैं। आप हाथ धोकर उनसे बात करें। मैं तब तक चौका लगा देता हूँ।" भट्ट जी को सेवक की बुद्धि पर दया आयी। उन्‍होंने उसे शिक्षा देते हुए कहा- "मैं अपने त्रिभुवन के स्‍वामी प्रभु की सेवा में लगा हूँ। इससे बड़ा कार्य अब कौन-सा हो सकता है कि भगवदकैंकर्य छोड़कर उसके लिये मैं इससे हाथ धो लूँ। कोई श्रद्धालु आता है तो उसे आने दो। मुझे प्रभु की सेवा के कार्य में लगा देखकर वह भी भगवदसेवा के लिये प्रेरित होगा।"

नित्यधाम यात्रा

इस प्रकार जीवन भर भगवदसेवा, श्रीमद्भागवत प्रवचन एंव संतों का सत्‍कार करते हुए श्रीगदाधर भट्ट जी वृन्दावन में ही रहे। अन्‍त में उनका पार्थिव शरीर उसी नित्‍य धाम की पावन रज में एक हो गया और उन्‍होंने अपने श्यामसुन्दर का शाश्‍वत सान्निध्य प्राप्‍त किया।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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