असित देवल तथा जैगीषव्य मुनि का चरित्र

महाभारत शल्य पर्व में गदा पर्व के अंतर्गत 50वें अध्याय में संजय ने आदित्य तीर्थ की महिमा के प्रसंग में असित देवल तथा जैगीषव्य मुनि के चरित्र का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

असित देवल तथा जैगीषव्य मुनि के चरित्र का वर्णन

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! प्राचीन काल की बात है, उसी तीर्थ में तपस्या के धनी धर्मात्मा असित देवल मुनि गृहस्थ धर्म का आश्रय लेकर निवास करते थे। वे सदा धर्मपरायण, पवित्र, जितेन्द्रिय, किसी को भी दण्ड न देने वाले, महातपस्वी तथा मन, वाणी और क्रिया द्वारा सभी जीवों के प्रति समान भाव रखने वाले थे। महाराज! उनमें क्रोध नहीं था। वे अपनी निन्दा और स्तुति को समान समझते थे। प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में उनकी चित्तवृत्ति एक सी रहती थी। वे यमराज की भाँति सबके प्रति सम दृष्टि रखते थे। सोना हो या मिट्टी का ढेला, महातपस्वी देवल दोनों को समान दृष्टि से देखते थे और प्रतिदिन देवताओं तथा ब्राह्मणों सहित अतिथियों का पूजन एवं आदर-सत्कार करते थे। वे मुनि सदा ब्रह्मचर्य पालन में तत्पर रहते थे। उन्हें सब समय धर्म का ही सबसे बड़ा सहारा था। महाभाग! एक दिन बुद्धिमान जैगीषव्य मुनि जो संन्यासी थे, योग का आश्रय लेकर उस तीर्थ में आये और एकाग्रचित्त होकर वहाँ रहने लगे। राजन! महाराज! वे महातेजस्वी और महातपस्वी जैगीषव्य सदा योगपरायण रहकर सिद्धि प्राप्त कर चुके थे तथा देवल के ही आश्रम में रहते थे। यद्यपि महामुनि जैगीषव्य उस आश्रम में ही रहते थे तथापि देवल मुनि उन्हें दिखाकर धर्मतः योग-साधना नहीं करते थे। इस तरह दोनों को वहाँ रहते हुए बहुत समय बीत गया।

जनमेजय! तदनन्तर कुछ काल तक ऐसा हुआ कि देवल मुनिवर जैगीषव्य को हर समय नहीं देख पाते थे। धर्म के ज्ञाता बुद्धिमान संन्यासी जैगीषव्य केवल भोजन या भिक्षा लेने के समय देवल के पास आते थे। भारत! संन्यासी के रूप में वहाँ आये हुए महामुनि जैगीषव्य को देखकर देवल उनके प्रति अत्यन्त गौरव और महान प्रेम प्रकट करते तथा यथाशक्ति शास्त्रीय विधि से एकाग्रचित्त हो उनका पूजन (आदर-सत्कार) किया करते थे। बहुत वर्षों तक उन्होंने ऐसा ही किया। नरेश्वर! एक दिन महातेजस्वी जैगीषव्य मुनि को देखकर महात्मा देवल के मन में बड़ी भारी चिन्ता हुई। उन्होंने सोचा, ‘इनकी पूजा करते हुए मुझे बहुत वर्ष बीत गये; परंतु ये आलसी भिक्षु आज तक एक बात भी नहीं बोले’। यही सोचते हुए श्रीमान देवल मुनि कलश हाथ में लेकर आकाश मार्ग से समुद्र तट की ओर चल दिये। भारत! नदीपति समुद्र के पास पहुँचते ही धर्मात्मा देवल ने देखा कि जैगीषव्य वहाँ पहले से ही गये हैं। तब तो अमित तेजस्वी महर्षि असित देवल को चिन्ता के साथ-साथ आश्चर्य भी हुआ। वे सोचने लगे, ‘ये भिक्षु यहाँ पहले ही कैसे आ पहुँचे? इन्होंने तो समुद्र में स्नान का कार्य भी पूर्ण कर लिया’। जनमेजय! फिर उन्होंने समुद्र में विधिपूर्वक स्नान करके पवित्र हो अपने योग्य मन्त्र का जप किया। जप आदि नित्य कर्मपूर्ण करके श्रीमान देवल जल से भरा हुआ कलश लेकर अपने आश्रम पर आये।[1]

आश्रम में प्रवेश करते ही देवल मुनि ने वहाँ बैठे हुए जैगीषव्य को देखा, परंतु जैगीषव्य ने उस समय भी किसी तरह उनसे बात नहीं की। वे महातपस्वी मुनि आश्रम पर काष्ठमौन होकर बैठे हुए थे। राजन! समुद्र के समान अत्यन्त प्रभावशाली मुनि को समुद्र के जल में स्नान करके अपने से पहले ही आश्रम में प्रविष्ट हुआ देख बुद्धिमान असित देवल को पुनः बड़ी चिन्ता हुई। राजेन्द्र! जैगीषव्य की तपस्या का वह योग जनित प्रभाव देखकर ये मुनिश्रेष्ठ देवल फिर सोचने लगे- ‘मैंने इन्हें अभी-अभी समुद्र तट पर देखा है, फिर ये आश्रम में कैसे उपस्थित हैं?’ प्रजानाथ! ऐसा विचार करते हुए वे मन्त्रशास्त्र के पारंगत विद्वान मुनि उस आश्रम से आकाश ही ओर उड़ चले। उस समय भिक्षु जैगीषव्य की परीक्षा लेने के लिये उन्होंने ऐसा किया। ऊपर जाकर उन्होंने बहुत से अन्तरिक्षचारी एकाग्र चित्त वाले सिद्धों को देखा। साथ ही उन सिद्धों के द्वारा पूजे जाते हुए जैगीषव्य मुनि का भी उन्हें दर्शन हुआ। तदनन्तर दृढ़तापूर्वक व्रत का पालन करने वाले दृढ़ निश्चयी असित देवल मुनि रोषावेश में भर गये। फिर उन्होंने जैगीषव्य को स्वर्ग लोक में जाते देखा। स्वर्ग लोक से उन्हें पितृलोक में और पितृलोक से यमलोक में जाते देखा। वहाँ से भी ऊपर उठकर महामुनि जैगीषव्य जलमय चन्द्रलोक में जाते दिखायी दिये। फिर वे एकान्ततः यज्ञ करने वाले पुरुषों के उत्तम लोकों की ओर उड़ते दिखायी दिये। वहाँ से वे अग्निहोत्रियों के लोकों मेें गये। उन लोकों से ऊपर उठकर वे बुद्धिमान मुनि उन तपोधनों के लोक में गये, जो दर्श और पौर्णमास यज्ञ करते हैं।

वहाँ से वे पशुयाग करने वालों के लोकों में जाते दिखायी दिये। जो तपस्वी नाना प्रकार के चातुर्मास यज्ञ करते हैं, उनके निर्मल लोकों में जाते हुए जैगीषव्य को देवल मुनि ने देखा। वे वहाँ देवताओं से पूजित हो रहे थे। वहाँ से अग्निष्टोमया जी तथा अग्निष्टुत यज्ञ के द्वारा यज्ञ करने वाले तपोधनों के लोक में पहुँचे हुए जैगीषव्य को देवल मुनि ने देखा। जो महाप्राज्ञ पुरुष बहुत सी सुवर्णमयी दक्षिणाओं से युक्त क्रतुश्रेष्ठ वाजपेय यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं, उनके लोकों में भी उन्होंने जैगीषव्य का दर्शन किया। जो राजसूय पुण्डरीक यज्ञ के द्वारा यजन करते हैं, उनके लोकों में भी देवल ने जैगीषव्य को देखा। जो नरश्रेष्ठ क्रतुओं में उत्तम अश्वमेध तथा नरमेध का अनुष्ठान करते हैं, उनके लोकों में भी उनका दर्शन किया। जो लोग दुर्लभ सर्वमेध तथा सौत्रामणि यज्ञ करते हैं, उनके लोकों में भी देवल ने जैगीषव्य को देखा। नरेश्वर! जो नाना प्रकार के द्वादशाह यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं, उनके लोकों में भी देवल ने जैगीषव्य का दर्शन किया। तत्पश्चात् असित ने मित्र, वरुण और आदित्यों के लोकों में पहुँचे हुए जैगीषव्य को देखा। तदनन्तर रुद्र, वसु और बृहस्पति के जो स्थान हैं, उन सब को लांघ कर ऊपर उठे हुए जैगीषव्य का असित देवल ने दर्शन किया। इसके बाद असित ने गौओं के लोक में जाकर जैगीषव्य को ब्रह्मसत्र करने वालों के लोकों में जाते देखा। तत्पश्चात् देवल ने देखा कि विप्रवर जैगीषव्य मुनि अपने तेज से ऊपर-ऊपर के तीन लोकों को लांघ कर पतिव्रताओं के लोक में जा रहे हैं।[2]

शत्रुओं का दमन करने वाले नरेश! इसके बाद असित ने मुनिवर जैगीषव्य को पुनः किसी लोक में स्थित नहीं देखा। वे अदृश्य हो गये थे। तत्पश्चात् महाभाग देवल ने जैगीषव्य के प्रभाव, उत्तम व्रत और अनुपम योग सिद्धि के विषय में विचार किया। इसके बाद धैर्यवान असित ने उन लोकों में रहने वाले ब्रह्म याजी सिद्धों और साधु पुरुषों से हाथ जोड़कर विनीत भाव से पूछा- ‘महात्माओं! मैं महातेजस्वी जैगीषव्य को अब देख नहीं रहा हूँ। आप उनका पता बतावें। मैं उनके विषय में सुनना चाहता हूँ। इसके लिये मेरे मन में बड़ी उत्कण्ठा है’। सिद्धों ने कहा- दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाले देवल! सुनो। हम तुम्हें वह बात बता रहे हैं, जो हो चुकी है। जैगीषव्य मुनि सनातन ब्रह्मलोक में जा पहुँचे हैं। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! उन ब्रह्मयाजी सिद्धों की बात सुनकर देवल मुनि तुरंत ऊपर की ओर उछले, परंतु नीचे गिर पड़े। तब उन सिद्धों ने पुनः देवल से कहा- ‘तपोधन देवल! विप्रवर! जहाँ जैगीषव्य गये हैं, उस ब्रह्मलोक में जाने की शक्ति तुममें नहीं है’। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! उन सिद्धों की बात सुनकर देवल मुनि पुनः क्रमशः उन सभी लोकों में होते हुए नीचे उतर आये। पक्षी की तरह उड़ते हुए वे अपने पुण्यमय आश्रम पर आ पहुँचे। आश्रम के भीतर प्रवेश करते ही देवल ने जैगीषव्य मुनि को वहाँ बैठा देखा। तब देवल ने जैगीषव्य की तपस्या का वह योगजनित प्रभाव देखकर धर्म युक्त बुद्धि से उस पर विचार किया।

राजन! इसके बाद महामुनि महात्मा जैगीषव्य के पास जाकर देवल ने विनीत भाव से कहा- ‘भगवन! मैं मोक्ष धर्म का आश्रय लेना चाहता हूँ।’ उनकी वह बात सुनकर महातपस्वी जैगीषव्य ने उनका संन्यास लेने का विचार जानकर उन्हें ज्ञान का उपदेश किया। साथ ही योग की उत्तम विधि बताकर शास्त्र के अनुसार कर्तव्य अकर्तव्य का भी उपदेश दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने शास्त्रीय विधि के अनुसार उनके संन्यास ग्रहण सम्बन्धी समस्त कार्य (दीक्षा और सस्कार आदि) किये। उनका संन्यास लेने का विचार जानकर पितरों सहित समस्त प्राणी यह कहते हुए रोने लगे ‘कि अब हमें कौन विभागपूर्वक अन्नदान करेगा। दसों दिशाओं में विलाप करते हुए उन प्राणियों का करुणा युक्त वचन सुनकर देवल ने मोक्ष धर्म (संन्यास) को त्याग देने को विचार किया। भारत! यह देख फल-मूल, पवित्री (कुश), पुष्प और ओषधियां- ये सहस्रों पदार्थ यह कहकर बरंबार रोने लगे कि ‘यह खोटी बुद्धि वाला क्षुद्र देवल निश्चय ही फिर हमारा उच्छेद करेगा। तभी तो यह सम्पूर्ण भूतों को अभयदान देकर भी अब अपनी प्रतिज्ञा को स्मरण नहीं करता है’। तब मुनि श्रेष्ठ देवल पुनः अपनी बुद्धि से विचार करने लगे, मोक्ष ओर गार्हस्थ्य धर्म इनमें से कौन सा मेरे लिये श्रेयस्कर होगा।

नृपश्रेष्ठ! देवल ने मन ही मन इस बात पर निश्चित विचार करके गार्हस्थ्य धर्म को त्याग कर अपने लिये मोक्ष धर्म को पसंद किया। भारत! इन सब बातों को सोच-विचार कर देवल ने जो संन्यास लेने का ही निश्चय किया, उससे उन्होंने परम सिद्धि और उत्तम योग को प्राप्त कर लिया।[3] तब बृहस्पति आदि सब देवता और तपस्वी वहाँ आकर जैगीषव्य मुनि के तप की प्रशंसा करने लगे। तदनन्तर मुनि श्रेष्ठ नारद ने देवताओं से कहा- ‘जैगीषव्य में तपस्या नहीं है; क्योंकि ये असित मुनि को अपना प्रभाव दिखाकर आश्चर्य में डाल रहे हैं’। ऐसा कहने वाले ज्ञानी नारद मुनि को देवताओं ने महामुनि जैगीषव्य की प्रशंसा करते हुए इस प्रकार उत्तर दिया- ‘आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये; क्योंकि प्रभाव, तेज, तपस्या और योग की दृष्टि से इन महात्मा से बढ़कर दूसरा कोई नहीं है’। धर्मात्मा जैगीषव्य तथा असित मुनि का ऐसा ही प्रभाव था। उन दोनों महात्माओं का यह श्रेष्ठ स्थान ही तीर्थ है। पारमार्थिक कर्म करने वाले महात्मा हलधर वहाँ भी स्नान करके ब्राह्मणों को धन-दान दे धर्म का फल पाकर सोम के महान एवं उत्तम तीर्थ में गये।[4]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 50 श्लोक 1-18
  2. महाभारत शल्य पर्व अध्याय 50 श्लोक 19-42
  3. महाभारत शल्य पर्व अध्याय 50 श्लोक 43-63
  4. महाभारत शल्य पर्व अध्याय 50 श्लोक 64-69

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