करवट उत्सव

भगवान कृष्ण के उत्सव इतने हैं कि वर्ष में 365 दिन हैं और भक्तजन 370 उत्सव मानते हैं। जब भगवान ने पहली बार छींका, जब उंगली से संकेत किया, जव बोलना शुरू किया, चलना शुरू किया, पहली बार खाया। इन्हीं में से एक है भगवान का ‘करवट उत्सव’, जब भगवान ने करवट बदली।

श्रीकृष्ण के करवट बदलने का अभिषेक-उत्सव मनाया जा रहा है।

श्रीमद्भागवत महापुराण का उल्लेख

'श्रीमद्भागवत महापुराण'[1] के अनुसार- "राजा परीक्षित ने पूछा- प्रभो! सर्वशक्तिमान भगवान श्रीहरि अनेकों अवतार धारण करके बहुत-सी सुन्दर एवं सुनने में मधुर लीलाएँ करते हैं। वे सभी मेरे हृदय को बहुत प्रिय लगती हैं। उनके श्रवणमात्र से भगवत-सम्बन्धी कथा से अरुचि और विविध विषयों की तृष्णा भाग जाती है। मनुष्य का अंतःकरण शीघ्र-से-शीघ्र शुद्ध हो जाता है। भगवान के चरणों में भक्ति और उनके भक्तजनों से प्रेम भी प्राप्त हो जाता है। यदि आप मुझे उनके श्रवण का अधिकारी समझते हों, तो भगवान की उन्हीं मनोहर लीलाओं का वर्णन कीजिये। भगवान श्रीकृष्ण ने मनुष्य-लोक में प्रकट होकर मनुष्य-जाति के स्वाभाव का अनुसरण करते हुए जो बाल-लीलाएँ की हैं, अवश्य ही वे अत्यन्त अद्भुत हैं, इसलिए आप अब उनकी दूसरी बाल-लीलाओं का भी वर्णन कीजिये।"

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित! एक बार[2] भगवान श्रीकृष्ण के करवट बदलने का अभिषेक-उत्सव मनाया जा रहा था। उसी दिन उनका जन्म नक्षत्र भी था। घर में बहुत-सी स्त्रियों के बीच में खड़ी हुईं सती-साध्वी यशोदा ने अपने पुत्र का अभिषेक किया। उस समय ब्राह्मण लोग मन्त्र पढ़कर आशीर्वाद दे रहे थे। नन्दरानी यशोदाजी ने ब्राह्मणों का खूब पूजन, सम्मान किया। उन्हें अन्न, वस्त्र, माला, गाय आदि मुँह माँगी वस्तुऐं दीं।

जब यशोदाजी ने उन ब्राह्मणों द्वारा स्वस्तिवाचन कराकर स्वयं बालक के नहलाने आदि का कार्य सम्पन्न कर लिया, तब यह देखकर कि मेरे लल्ला के नेत्रों में नींद आ रही है, अपने पुत्र को धीरे से शय्या पर सुला दिया। थोड़ी देर में श्यामसुन्दर की आँखें खुलीं, तो वे स्तन-पान के लिये रोने लगे। उस समय मनस्विनी यशोदाजी उत्सव में आये हुए ब्रजवासियों के स्वागत-सत्कार में बहुत ही तन्मय हो रही थीं। इसलिए उन्हें श्रीकृष्ण का रोना सुनायी नही पड़ा। तब श्रीकृष्ण रोते-रोते अपने पाँव उछालने लगे। शिशु श्रीकृष्ण एक छकड़े के नीचे सोये हुए थे। उनके पाँव अभी लाल-लाल कोंपलों के समान बड़े ही कोमल और नन्हें-नन्हें थे। परन्तु वह नन्हा-सा पाँव लगते ही विशाल छकड़ा उलट गया।[3] उस छकड़े पर दूध-दही आदि अनेक रसों की भरी हुई मटकियाँ और दूसरे बर्तन रखे हुए थे। वे सब-के-सब फूट-फाट गये, उसका जुआ फट गया। करवट बदलने के उत्सव में जितनी भी स्त्रियाँ आयी हुई थीं, वे सब और यशोदा, रोहिणी, नन्दबाबा और गोपगण इस विचित्र घटना को देखकर व्याकुल हो गये। वे आपस में कहने लगे- "अरे, यह क्या हो गया? यह छकड़ा अपने-आप कैसे उलट गया?" वे इसका कोई कारण निश्चित न करे सके। वहाँ खेलते हुए बालकों ने गोपों और गोपियों से कहा कि "इस कृष्ण ने ही तो रोते-रोते अपने पाँव की ठोकर से इसे उलट दिया है, इसमें कोई संदेह नहीं।" परन्तु गोपों ने उसे बालकों की बात मानकर उस पर विश्वास नहीं किया। ठीक ही है, वे गोप उस बालक के अनन्त बल को नहीं जानते थे।

यशोदाजी ने समझा यह किसी ग्रह आदि का उत्पात है। उन्होंने अपने रोते हुए लाड़ले लाल को गोद में लेकर ब्राह्मणों से वेद मन्त्रों के द्वारा शान्ति-पाठ कराया और फिर वे उसे स्तन पिलाने लगीं। बलवान गोपों ने छकड़े को फिर से सीधा कर दिया। उस पर पहले की तरह सारी सामग्री रख दी गयी। ब्राह्मणों ने हवन किया और दही, अक्षत, कुश तथा जल के द्वारा भगवान और उस छकड़े की पूजा की। जो किसी के गुणों में दोष नहीं निकालते, झूठ नहीं बोलते, दम्भ, ईर्ष्या और हिंसा नहीं करते तथा अभिमान रहित हैं, उन सत्यशील ब्राह्मणों का आशीर्वाद कभी विफल नहीं होता। यह सोचकर नन्दबाबा ने बालक को गोद में उठा लिया और ब्राह्मणों से साम, ऋक और यजुर्वेद मन्त्रों द्वारा संस्कृत एवं पवित्र औषधियों से युक्त जल से अभिषेक कराया। उन्होंने बड़ी एकाग्रता से स्वस्तययनपाठ और हवन कराकर ब्राह्मणों को अति उत्तम अन्न का भोजन कराया। इसके बाद नन्दबाबा ने अपने पुत्र की उन्नति और अभिवृद्धि की कामना से ब्राह्मणों को सर्वगुण सम्पन्न बहुत-सी गौएँ दीं। वे गौएँ वस्त्र, पुष्पमाला और सोने के हारों से सजी हुई थीं। ब्राह्मणों ने उन्हें आशीर्वाद दिया। यह बात स्पष्ट है कि जो वेदवेत्ता और सदाचारी ब्राह्मण होते हैं, उनका आशीर्वाद कभी निष्फल नहीं होता।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दशम स्कन्ध, अध्याय 7, श्लोक 1-17
  2. यहाँ कदाचित (एक बार) से तात्पर्य है तीसरे महीने के जन्म नक्षत्र युक्त काल से। उस समय श्रीकृष्ण की झाँकी का ऐसा वर्णन मिलता है- ‘स्नेह से तर गोपियों को आँख उठाकर देखते और मुसकराते हैं। दोनों भुजाएँ बार-बार हिलाते हैं। बड़े मधुर स्वर से थोड़ा-थोड़ा कूजते हैं। गोद में आने के लिये ललकते हैं। किसी वस्तु को पाकर उससे खेलने लग जाते हैं और न मिलने से क्रन्दन करते हैं। कभी-कभी दूध पीकर सो जाते हैं और फिर जागकर आनन्दित करते हैं।’
  3. हिरण्याक्ष का पुत्र था उत्कच। वह बहुत बलवान एवं मोटा-तगड़ा था। एक बार यात्रा करते समय उसने लोमश ऋषि के आश्रमों के वृक्षों को कुचल डाला। लोमश ऋषि ने क्रोध करके शाप दे दिया- "अरे दुष्ट! जा, तू देह रहित हो जा।" उसी समय साँप के केंचुल के समान उसका शरीर गिरने लगा। वह धड़ाम से लोमश ऋषि के चरणों पर गिर पड़ा और प्रार्थना की- "कृपासिन्धो! मुझ पर कृपा कीजिये। मुझे आपके प्रभाव का ज्ञान नहीं था। मेरा शरीर लौटा दीजिये।" लोमशजी प्रसन्न हो गये। महात्माओं का शाप भी वर हो जाता है। उन्होंने कहा- "वैवस्वत मन्वन्तर में श्रीकृष्ण के चरण-स्पर्श से तेरी मुक्ति हो जायगी।" वही असुर छकड़े में आकर बैठ गया था और भगवान श्रीकृष्ण के चरण स्पर्श से मुक्त हो गया।

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