काम्यवन

काम्यवन
चन्द्रमा जी मन्दिर, काम्यवन
विवरण 'काम्यकवन' ब्रजमण्डल के प्रसिद्ध वनों में से एक है। यह श्रीकृष्ण की विभिन्न लीलाओं से सम्बंधित है। इस वन की परिक्रमा चौदह मील की है।
राज्य उत्तर प्रदेश
ज़िला मथुरा
प्रसिद्धि श्रीकृष्ण लीला स्थल
कब जाएँ कभी भी
क्या देखें फिसलनी शिला · भोजनथाली · व्योमासुर गुफ़ा · गया कुण्ड · गोविन्द कुण्ड · घोषरानी कुण्ड · दोहनी कुण्ड · द्वारका कुण्ड · धर्म कुण्ड · नारद कुण्ड · मनोकामना कुण्ड · यशोदा कुण्ड · ललिता कुण्ड · लुकलुकी कुण्ड · विमल कुण्ड · विहृल कुण्ड · सुरभी कुण्ड · चरण कुण्ड · चरण पहाड़ी · सेतुबन्ध रामेश्वर कुण्ड
संबंधित लेख ब्रज, ब्रज के वन, मथुरा, वृन्दावन, कृष्ण, राधा, कृष्ण और गोपियाँ
अन्य जानकारी विष्णु पुराण के अनुसार काम्यवन में चौरासी कुण्ड (तीर्थ), चौरासी मन्दिर तथा चौरासी खम्बे वर्तमान हैं। कहते हैं कि इन सबकी प्रतिष्ठा किसी प्रसिद्ध राजा श्रीकामसेन के द्वारा की गई थी।

काम्यवन जिसे कामवन अथवा कामां भी कहा जाता है, ब्रजमण्डल के द्वादश वनों में से चतुर्थ वन। यह ब्रजमण्डल के सर्वोत्तम वनों में से एक है। इस वन की परिक्रमा करने वाला सौभाग्यवान व्यक्ति ब्रजधाम में पूजनीय होता है।[1]

  • यथार्थ में श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों का प्रेम ही 'काम' शब्द वाच्य है। 'प्रेमैव गोपरामाणां काम इत्यागमत प्रथाम्', अर्थात गोपिकाओं का निर्मल प्रेम जो केवल श्रीकृष्ण को सुख देने वाला होता है, जिसमें लौकिक काम की कोई गन्ध नहीं होती, उसी को शास्त्रों में काम कहा गया है। सांसारिक काम वासनाओं से गोपियों का यह शुद्ध काम सर्वथा भिन्न है। सब प्रकार की लौकिक कामनाओं से रहित केवल प्रेमास्पद कृष्ण को सुखी करना ही गोपियों के काम का एकमात्र तात्पर्य है। इसीलिए गोपियों के विशुद्ध प्रेम को ही श्रीमद्भागवतादि शास्त्रों में काम की संज्ञा दी गई है। जिस कृष्णलीला स्थली में श्रीराधा-कृष्ण युगल के ऐसे अप्राकृत प्रेम की अभिव्यक्ति हुई है, उसका नाम कामवन है। गोपियों के विशुद्ध प्रेमस्वरूप शुद्धकाम की भी सहज ही सिद्धि होती है, उसे कामवन कहा गया है।
  • काम्य शब्द का अर्थ अत्यन्त सुन्दर, सुशोभित या रुचिर भी होता है। ब्रजमंडल का यह वन विविध प्रकार के सुरम्य सरोवरों, कूपों, कुण्डों, वृक्ष-वल्लरियों, फूल और फलों से तथा विविध प्रकारके विहग्ङमों से अतिशय सुशोभित श्रीकृष्ण की परम रमणीय विहार स्थली है। इसीलिए इसे काम्यवन कहा गया है।

पुराण उल्लेख

'स्कंद पुराण' में एक स्थान पर इस प्रकार उल्लेख मिलता है- "हे महाराज ! तदनन्तर काम्यवन है, जहाँ आपने[2] बहुत सी बालक्रीड़ाएँ की थीं। इस वन के कामादि सरोवरों में स्नान करने मात्र से सब प्रकार की कामनाएँ यहाँ तक कि कृष्ण की प्रेममयी सेवा की कामना भी पूर्ण हो जाती है।"

'तत: काम्यवनं राजन ! यत्र बाल्ये स्थितो भवान्। स्नानमात्रेण सर्वेषां सर्वकामफलप्रदम् ॥'[3]

विष्णु पुराण के अनुसार काम्यवन में चौरासी कुण्ड (तीर्थ), चौरासी मन्दिर तथा चौरासी खम्बे वर्तमान हैं। कहते हैं कि इन सबकी प्रतिष्ठा किसी प्रसिद्ध राजा श्रीकामसेन के द्वारा की गई थी। ऐसी भी मान्यता है कि देवता और असुरों ने मिलकर यहाँ एक सौ अड़सठ (168) खम्बों का निर्माण किया था। महाभारत के वर्णन के अनुसार यह वह वन है, जहाँ पांडवों ने अपने वनवास काल का कुछ समय बिताया था। यहाँ इस वन को मरुभूमि के निकट बताया गया है। यह मरुभूमि राजस्थान का मरुस्थल जान पड़ता है, जहाँ पहुँच कर सरस्वती लुप्त हो जाती थी। इसी वन में भीम ने किमार नामक राक्षस का वध किया था।[4] इसी वन में मैत्रेय की पांडवों से भेंट हुई थी, जिसका वर्णन उन्होंने धृतराष्ट्र को सुनाया था-

'तीर्थयात्रामनुकामन् प्राप्तोस्मि कुरुजांगलान् यद्दच्छया धर्मराज द्दष्टवान् काम्यके वने।[5]

कुण्ड और तीर्थ

यहाँ छोटे–बड़े असंख्य कुण्ड और तीर्थ हैं। इस वन की परिक्रमा चौदह मील की है। विमलकुण्ड यहाँ का प्रसिद्ध तीर्थ या कुण्ड है। सर्वप्रथम इस विमलकुण्ड में स्नान कर श्रीकाम्यवन के कुण्ड अथवा काम्यवन की दर्शनीय स्थलियों का दर्शन प्रारम्भ होता है। विमलकुण्ड में स्नान के पश्चात् गोपिका कुण्ड, सुवर्णपुर, गया कुण्ड एवं धर्म कुण्ड के दर्शन हैं। धर्म कुण्ड पर धर्मराज जी का सिंहासन दर्शनीय है। आगे यज्ञकुण्ड, पाण्डवों के पंचतीर्थ सरोवर, परम मोक्षकुण्ड, मणिकर्णिका कुण्ड हैं। पास में ही निवासकुण्ड तथा यशोदा कुण्ड हैं। पर्वत के शिखर पर भद्रेश्वर शिवमूर्ति है। अनन्तर अलक्ष गरुड़ मूर्ति है। पास में ही पिप्पलाद ऋषि का आश्रम है। अनन्तर दिहुहली, राधापुष्करिणी और उसके पूर्व भाग में ललिता पुष्करिणी, उसके उत्तर में विशाखा पुष्करिणी, उसके पश्चिम में चन्द्रावली पुष्करिणी तथा उसके दक्षिण भाग में चन्द्रभागा पुष्करिणी है, पूर्व–दक्षिण के मध्य स्थल में लीलावती पुष्करिणी है। पश्चिम–उत्तर में प्रभावती पुष्करिणी, मध्य में राधा पुष्करिणी है। इन पुष्करिणियों में चौंसठ सखियों की पुष्करिणी हैं। आगे कुशस्थली है। वहाँ शंखचूड़ बधस्थल तथा कामेश्वर महादेव जी दर्शनीय हैं। वहाँ से उत्तर में चन्द्रशेखर मूर्ति विमलेश्वर तथा वराह स्वरूप का दर्शन है। वहीं द्रौपदी के साथ पंच पाण्डवों का दर्शन, आगे वृन्दादेवी के साथ गोविन्दजी का दर्शन, श्रीराधावल्लभ, श्रीगोपीनाथ, नवनीत राय, गोकुलेश्वर और श्रीरामचन्द्र के स्वरूपों का दर्शन है। इनके अतिरिक्त चरण पहाड़ी श्रीराधागोपीनाथ, श्रीराधामोहन (गोपालजी), चौरासी खम्बा आदि दर्शनीय स्थल है।

विमल कुण्ड

विमल कुण्ड, काम्यवन
Vimal Kund, Kamyavan

कामवन ग्राम से दो फर्लांग दूर दक्षिण–पश्चिम कोण में प्रसिद्ध विमल कुण्ड स्थित है। कुण्ड के चारों ओर क्रमश: (1) दाऊजी, (2) सूर्यदेव, (3) श्रीनीलकंठेश्वर महादेव, (4) श्रीगोवर्धननाथ, (5) श्रीमदन मोहन एवं काम्यवन विहारी, (6) श्रीविमल विहारी, (7) विमला देवी, (8) श्रीमुरलीमनोहर, (9) भगवती गंगा और (10) श्रीगोपालजी विराजमान हैं।

श्रीवृन्दादेवी और श्रीगोविन्द देव

यह काम्यवन का सर्वाधिक प्रसिद्ध मन्दिर है। यहाँ वृन्दादेवी का विशेष रूप से दर्शन है, जो ब्रजमण्डल में कहीं अन्यत्र दुर्लभ है। श्रीराधा-गोविन्ददेवी भी यहाँ विराजमान हैं। पास में ही श्रीविष्णु सिंहासन अर्थात श्रीकृष्ण का सिंहासन है। उसके निकट ही चरण कुण्ड है, जहाँ श्रीराधा और गोविन्द युगल के श्रीचरणकमल पखारे गये थे। श्री रूप-सनातन आदि गोस्वामियों के अप्रकट होने के पश्चात् धर्मान्ध मुग़ल सम्राट औरंगजेब के अत्याचारों से जिस समय ब्रज में वृन्दावन, मथुरा आदि के प्रसिद्ध मन्दिर ध्वंस किये जा रहे थे, उस समय जयपुर के परम भक्त महाराज ब्रज के श्रीगोविन्द, श्रीगोपीनाथ, श्रीमदनमोहन, श्रीराधादामोदर, श्रीराधामाधव आदि प्रसिद्ध विग्रहों को अपने साथ लेकर जब जयपुर आ रहे थे, तो उन्होंने मार्ग में इस काम्यवन में कुछ दिनों तक विश्राम किया। श्रीविग्रहों को रथों से यहाँ विभिन्न स्थानों में पधराकर उनका विधिवत स्नान, भोगराग और शयनादि सम्पन्न करवाया था। तत्पश्चात् वे जयपुर और अन्य स्थानों में पधराये गये। तदनन्तर काम्यवन में जहाँ–जहाँ श्रीराधागोविन्द, श्रीराधागोपीनाथ और श्रीराधामदनमोहन पधराये गये थे, उन–उन स्थानों पर विशाल मन्दिरों का निर्माण कराकर उनमें उन–उन मूल श्रीविग्रहों की प्रतिभू–विग्रहों की प्रतिष्ठा की गई। श्रीवृन्दादेवी काम्यवन तक तो आई, किन्तु वे ब्रज को छोड़कर आगे नहीं गई। इसीलिए यहाँ श्रीवृन्दादेवी का पृथक रूप दर्शन है।

चैतन्य महाप्रभु और उनके रूप सनातन गोस्वामी आदि परिकरों ने ब्रजमण्डल की लुप्त लीलास्थलियों को प्रकाशित किया है। इनके ब्रज में आने से पूर्व काम्यवन को वृन्दावन माना जाता था। किन्तु, श्रीचैतन्य महाप्रभु ने ही मथुरा के सन्निकट श्रीधाम वृन्दावन को प्रकाशित किया। क्योंकि काम्यवन में यमुना जी, चीरघाट, निधिवन, कालीदह, केशीघाट, सेवाकुंज, रासस्थली वंशीवट, श्रीगोपेश्वर महादेव की स्थिति असम्भव है। इसलिए विमलकुण्ड, कामेश्वर महादेव, चरण पहाड़ी, सेतुबांध रामेश्वर आदि लीला स्थलियाँ जहाँ विराजमान हैं, वह अवश्य ही वृन्दावन से पृथक काम्यवन है। वृन्दादेवी का स्थान वृन्दावन में ही है। वे वृन्दावन के कुञ्ज की तथा उन कुञ्जों में श्रीराधा-कृष्ण युगल की क्रीड़ाओं की अधिष्ठात्री देवी है। अत: अब वे श्रीधाम वृन्दावन के श्रीरूप सनातन गौड़ीय मठ में विराजमान हैं। यहाँ उनकी बड़ी ही दिव्य झाँकी है। श्रीगोविन्द मन्दिर के निकट ही गरुड़जी, चन्द्रभाषा कुण्ड, चन्द्रेश्वर महादेवजी, वाराहकुण्ड, वाराहकूप, यज्ञकुण्ड और धर्मकुण्डादि दर्शनीय हैं।

धर्म कुण्ड

यह कुण्ड काम्यवन की पूर्व दिशा में है। यहाँ श्रीनारायण धर्म के रूप में विराजमान हैं। पास में ही विशाखा नामक वेदी है। श्रवण नक्षत्र, बुधवार, भाद्रपद कृष्णाष्टमी में यहाँ स्नान की विशेष विधि है। धर्म कुण्ड के अन्तर्गत नर–नारायण कुण्ड, नील वराह, पंच पाण्डव, हनुमान जी, पंच पाण्डव कुण्ड (पंच तीर्थ) मणिकर्णिका, विश्वेश्वर महादेवादि दर्शनीय हैं।

यशोदा कुण्ड

काम्यवन में यहीं कृष्ण की माता श्रीयशोदाजी का पित्रालय था। श्रीकृष्ण बचपन में अपनी माता जी के साथ यहाँ कभी–कभी आकर निवास करते थे। कभी-कभी नन्द भी अपने गऊओं के साथ पड़ाव में यहीं ठहरते थे। श्रीकृष्ण सखाओं के साथ यहाँ गोचारण भी करते थे।[6] ऐसा शास्त्रों में उल्लेख है। यह स्थान अत्यन्त मनोहर है।

गया कुण्ड

गया कुण्ड, काम्यवन
Gaya Kund, Kamyavan

गयातीर्थ भी ब्रजमण्डल के इस स्थान पर रहकर कृष्ण की आराधना करते हैं। इसमें अगस्त कुण्ड भी एक साथ मिले हुए हैं। गया कुण्ड के दक्षिणी घाट का नाम अगस्त घाट है। यहाँ आश्विन माह के कृष्ण पक्ष में स्नान, तर्पण और पिण्डदान आदि प्रशस्त हैं।

प्रयाग कुण्ड

तीर्थराज प्रयाग ने यहाँ श्रीकृष्ण की आराधना की थी। प्रयाग और पुष्कर ये दोनों कुण्ड एक साथ हैं।

द्वारका कुण्ड

श्रीकृष्ण ने यहाँ पर द्वारका से ब्रज में पधारकर महर्षियों के साथ शिविर बनाकर निवास अवस्थित किया था। द्वारकाकुण्ड, सोमती कुण्ड, मानकुण्ड और बलभद्र कुण्ड, ये चारों कुण्ड परस्पर सन्निकट अवस्थित हैं।

नारद कुण्ड

यह नारदजी की आराधना स्थली है। देवर्षि नारद इस स्थान पर कृष्ण की मधुर लीलाओं का गान करते हुए अधैर्य हो जाते थे।[7]

मनोकामना कुण्ड

विमल कुण्ड और यशोदा कुण्ड के बीच में मनोकामना कुण्ड और काम सरोवर एक साथ विराजमान हैं। यहाँ स्नानादि करने पर मन की सारी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं-

'तत्र कामसरो राजन ! गोपिकारमणं सर:। तत्र तीर्थ सहस्राणि सरांसि च पृथक्–पृथक् ॥'[8]

काम्यवन में गोपिकारमण कामसरोवर है, जहाँ पर मन की सारी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। उसी काम्यवन में अन्यान्य सहस्र तीर्थ विराजमान हैं।

सेतुबन्ध सरोवर

श्रीकृष्ण ने यहाँ पर श्रीराम के आवेश में गोपियों के कहने से बंदरों के द्वारा सेतु का निर्माण किया था। अभी भी इस सरोवर में सेतु बन्ध के भग्नावशेष दर्शनीय हैं। कुण्ड के उत्तर में रामेश्वर महादेवजी दर्शनीय हैं। जो श्रीरामावेशी श्रीकृष्ण के द्वारा प्रतिष्ठित हुए थे। कुण्ड के दक्षिण में उस पार एक टीले के रूप में लंकापुरी भी दर्शनीय है।

प्रसंग

श्रीकृष्ण लीला के समय एक दिन परम कौतुकी श्रीकृष्ण इसी कुण्ड के उत्तरी तट पर गोपियों के साथ वृक्षों की छाया में बैठकर विनोदिनी श्रीराधिका के साथ हास्य-परिहास कर रहे थे। उस समय इनकी रूप माधुरी से आकृष्ट होकर आसपास के सारे बंदर पेड़ों से नीचे उतरकर उनके चरणों में प्रणाम कर किलकारियाँ मारकर नाचने–कूदने लगे। बहुत से बंदर कुण्ड के दक्षिण तट के वृक्षों से लम्बी छलांग मारकर उनके चरणों के समीप पहुँचे। भगवान श्रीकृष्ण उन बंदरों की वीरता की प्रशंसा करने लगे। गोपियाँ भी इस आश्चर्यजनक लीला को देखकर मुग्ध हो गईं। वे भी रामचन्द्र की अद्भुत लीलाओं का वर्णन करते हुए कहने लगीं कि श्रीरामचन्द्रजी ने भी बंदरों की सहायता ली थी। उस समय ललिता जी ने कहा- "हमने सुना है कि महापराक्रमी हनुमान ने त्रेतायुग में एक छलांग में समुद्र को पार कर लिया था। परन्तु आज तो हम साक्षात रूप में बंदरों को इस सरोवर को एक छलांग में पार करते हुए देख रही हैं।" ऐसा सुनकर कृष्ण ने गर्व करते हुए कहा- "जानती हो ! मैं ही त्रेतायुग में श्रीराम था। मैंने ही रामरूप में सारी लीलाएँ की थीं।" ललिता श्रीरामचन्द्र की अद्भुत लीलाओं की प्रशंसा करती हुई बोलीं- "तुम झूठे हो। तुम कदापि राम नहीं थे। तुम्हारे लिए कदापि वैसी वीरता सम्भव नहीं।" श्रीकृष्ण ने मुस्कराते हुए कहा- "तुम्हें विश्वास नहीं हो रहा है, किन्तु मैंने ही रामरूप धारणकर जनकपुरी में शिवधनुष को तोड़कर सीता से विवाह किया था। पिता के आदेश से धनुष-बाण धारणकर सीता और लक्ष्मण के साथ चित्रकूट और दण्डकारण्य में भ्रमण किया तथा वहाँ अत्याचारी दैत्यों का विनाश किया। फिर सीता के वियोग में वन–वन भटका। पुन: बन्दरों की सहायता से रावण सहित लंकापुरी का ध्वंसकर अयोध्या में लौटा। मैं इस समय गोपालन के द्वारा वंशी धारणकर गोचारण करते हुए वन–वन में भ्रमण करता हुआ प्रियतमा श्रीराधिका के साथ तुम गोपियों से विनोद कर रहा हूँ। पहले मेरे रामरूप में धनुष–बाणों से त्रिलोकी काँप उठती थी। किन्तु, अब मेरे मधुर वेणुनाद से स्थावर–जग्ङम सभी प्राणी उन्मत्त हो रहे हैं। ललिताजी ने भी मुस्कराते हुए कहा– हम केवल कोरी बातों से ही विश्वास नहीं कर सकतीं। यदि श्रीराम जैसा कुछ पराक्रम दिखा सको तो हम विश्वास कर सकती हैं। श्रीरामचन्द्रजी सौ योजन समुद्र को भालू–कपियों के द्वारा बंधवाकर सारी सेना के साथ उस पार गये थे। आप इन बंदरों के द्वारा इस छोटे से सरोवर पर पुल बँधवा दें तो हम विश्वास कर सकती हैं। ललिता की बात सुनकर श्रीकृष्ण ने वेणू–ध्वनि के द्वारा क्षणमात्र में सभी बंदरों को एकत्र कर लिया तथा उन्हें प्रस्तर शिलाओं के द्वारा उस सरोवर के ऊपर सेतु बाँधने के लिए आदेश दिया। देखते ही देखते श्रीकृष्ण के आदेश से हज़ारों बंदर बड़ी उत्सुकता के साथ दूर -दूर स्थानों से पत्थरों को लाकर सेतु निर्माण लग गये। श्रीकृष्ण ने अपने हाथों से उन बंदरों के द्वारा लाये हुए उन पत्थरों के द्वारा सेतु का निर्माण किया। सेतु के प्रारम्भ में सरोवर की उत्तर दिशा में श्रीकृष्ण ने अपने रामेश्वर महादेव की स्थापना भी की। आज भी ये सभी लीलास्थान दर्शनीय हैं। इस कुण्ड का नामान्तर लंका कुण्ड भी है।

लुकलुकी कुण्ड

गोचारण करते समय कभी कृष्ण अपने सखाओं को खेलते हुए छोड़कर कुछ समय के लिए एकान्त में इस परम रमणीय स्थान पर गोपियों से मिले। वे उन ब्रज– रमणियों के साथ यहाँ पर लुका–छिपी (आँख मुदउवल) की क्रीड़ा करने लगे। सब गोपियों ने अपनी–अपनी आँखें मूँद लीं और कृष्ण निकट ही पर्वत की एक कन्दरा में प्रवेश कर गये। सखियाँ चारों ओर खोजने लगीं, किन्तु कृष्ण को ढूँढ़ नहीं सकीं। वे बहुत ही चिन्तित हुई कि कृष्ण हमें छोड़कर कहाँ चले गये ? वे कृष्ण का ध्यान करने लगीं। जहाँ पर वे बैठकर ध्यान कर रही थीं, वह स्थल ध्यान–कुण्ड है। जिस कन्दरा में कृष्ण छिपे थे , उसे लुक–लुक कन्दरा कहते हैं।

चरणपहाड़ी

चरणपहाड़ी, काम्यवन
Charan Pahadi, Kamyavan

श्रीकृष्ण इस कन्दरा में प्रवेशकर पहाड़ी के ऊपर प्रकट हुए और वहीं से उन्होंने मधुर वंशीध्वनि की। वंशीध्वनि सुनकर सखियों का ध्यान टूट गया और उन्होंने पहाड़ी के ऊपर प्रियतम को वंशी बजाते हुए देखा। वे दौड़कर वहाँ पर पहुँची और बड़ी आतुरता के साथ कृष्ण से मिलीं। वंशीध्वनि से पर्वत पिघल जाने के कारण उसमें श्रीकृष्ण के चरण चिह्न उभर आये। आज भी वे चरण– चिह्न स्पष्ट रूप में दर्शनीय हैं। पास में उसी पहाड़ी पर जहाँ बछडे़ चर रहे थे और सखा खेल रहे थे, उसके पत्थर भी पिघल गये जिस पर उन बछड़ों और सखाओं के चरण– चिह्न अंकित हो गये, जो पाँच हज़ार वर्ष बाद आज भी स्पष्ट रूप से दर्शनीय हैं। लुक–लुकी कुण्ड में जल–क्रीड़ा हुई थी। इसलिए इसे जल–क्रीड़ा कुण्ड भी कहते हैं।

विहृल कुण्ड

चरणपहाड़ी के पास ही विहृल कुण्ड और पंचसखा कुण्ड है। यहाँ पर कृष्ण की मुरली ध्वनि को सुनकर गोपियाँ प्रेम में विहृल हो गई थी। इसलिए वह स्थान विहृल कुण्ड के नाम से प्रसिद्ध हुआ। पंच सखा कुण्डों के नाम रग्ङीला, छबीला, जकीला, मतीला और दतीला कुण्ड हैं। ये सब अग्रावली ग्राम के पास विद्यमान हैं।

यशोधरा कुण्ड

नामान्तर में घोषरानी कुण्ड है। घोषरानी यशोधर गोप की बेटी थी। यशोधर गोप ने यहीं अपनी कन्या का विवाह कर दिया था। श्रीकृष्ण की मातामही पाटला देवी का वह कुण्ड है।

श्री प्रबोधानन्द सरस्वती भजन स्थली

लुकलुकी कुण्ड के पास ही बड़े ही निर्जन किन्तु सुरम्य स्थान में श्रीप्रबोधानन्दजी की भजन–स्थली है। श्रीप्रबोधानन्द , श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामी के गुरु एवं पितृव्य थे। ये सर्वशास्त्रों के पारंगत अप्राकृत कवि थे। राधारससुधानिधि, श्रीनवद्वीप शतक, श्रीवृन्दावन शतक आदि इन्हीं महापुरुष की कृतियाँ हैं। श्रीकविकर्णपूर ने अपने प्रसिद्ध गौरगणोद्देशदीपिका में उनको कृष्णलीला की अष्टसखियों में सर्वगुणसम्पन्ना तुंगविद्या सखी बतलाया है। श्रीरग्ङम में श्रीमन्महाप्रभु से कुछ कृष्ण कथा श्रवणकर ये श्रीसम्प्रदाय को छोड़कर श्रीमन्महाप्रभु के अनुगत हो गये। श्रीमन्महाप्रभु के श्रीरग्ङम से प्रस्थान करने पर ये वृन्दावन में उपस्थित हुए और कुछ दिनों तक यहाँ इस निर्जन स्थान में रहकर उन्होंने भजन किया था। अपने अन्तिम समय में श्रीवृन्दावन कालीदह के पास भजन करते–करते नित्यलीला में प्रविष्ट हुए। आज भी उनकी भजन और समाधि स्थली वहाँ दर्शनीय है।

फिसलनी शिला

कलावता ग्राम के पास में इन्द्रसेन पर्वत पर फिसलनी शिला विद्यमान है। गोचारण करने के समय श्रीकृष्ण सखाओं के साथ यहाँ फिसलने की क्रीड़ा करते थे। कभी–कभी राधिकाजी भी सखियों के साथ यहाँ फिसलने की क्रीड़ा करती थीं। आज भी निकट गाँव के लड़के गोचारण करते समय बड़े आनन्द से यहाँ पर फिसलने की क्रीड़ा करते हैं। यात्री भी इस क्रीड़ा कौतुकवाली शिला को दर्शन करने के लिए जाते हैं।

व्योमासुर गुफ़ा

व्योमासुर गुफ़ा, काम्यवन
Vyomasur Cave, Kamyavan

इसके पास ही पहाड़ी के मध्य में व्योमासुर की गुफ़ा है। यहीं पर कृष्ण ने व्योमासुर का वध किया था। इसे मेधावी मुनि की कन्दरा भी कहते हैं। मेधावी मुनि ने यहाँ कृष्ण की आराधना की थी। पास में ही पहाड़ी नीचे श्रीबलदेव प्रभु का चरणचिह्न है। जिस समय श्रीकृष्ण व्योमासुर का वध कर रहे थे, उस समय पृथ्वी काँपने लगी। बल्देव जी ने अपने चरणों से पृथ्वी को दबाकर शान्त कर दिया था। उन्हीं के चरणों का चिह्न आज भी दर्शनीय है।

प्रसंग

एक समय कृष्ण गोचारण करते हुए यहाँ उपस्थित हुए। चारों तरफ वन में बड़ी–बड़ी हरी–भरी घासें थीं। गऊवें आनन्द से वहाँ चरने लग गई। श्रीकृष्ण निश्चिन्त होकर सखाओं के साथ मेष(भेड़)चोरी की लीला खेलने लगे। बहुत से सखा भेड़ें बन गये और कुछ उनके पालक बने। कुछ सखा चोर बनकर भेड़ों को चुराने की क्रीड़ा करने लगे। कृष्ण विचारक (न्यायाधीश) बने। मेष पालकों ने न्यायधीश कृष्ण के पास भेड़ चोरों के विरुद्ध मुक़दमा दायर किया। श्रीकृष्ण दोनों पक्षों को बुलाकर मुक़दमे का विचार करने लगे। इस प्रकार सभी ग्वालबाल क्रीड़ा में आसक्त हो गये। उधर व्योमासुर नामक कंस के गुप्तचर ने कृष्ण को मार डालने के लिए सखाओं जैसा वेश धारण कर सखा मण्डली में प्रवेश किया और भेड़ों का चोर बन गया तथा उसने भेड़ बने हुए सारे सखाओं को क्रमश: लाकर इसी कन्दरा में छिपा दिया। श्रीकृष्ण ने देखा कि हमारे सखा कहाँ गये ? उन्होंने व्योमासुर को पहचान लिया कि यह कार्य इस सखा बने दैत्य का ही है। ऐसा जानकर उन्होंने व्योमासुर को पकड़ लिया और उसे मार डाला। तत्पश्चात् पालक बने हुए सखाओं के साथ पर्वत की गुफ़ा से सखाओं का उद्धार किया। श्रीमद्भागवत दशम स्कन्ध में श्रीकृष्ण की इस लीला का वर्णन देखा जाता है।

भोजन थाली

भोजन थाली, काम्यवन
Bhojan Thali, Kamyavan

व्योमासुर गुफ़ा से थोड़ी दूर भोजन थाली है। श्रीकृष्ण ने व्योमासुर का वधकर यहीं पर इस कुण्ड में सखाओं के साथ स्नान किया था। उस कुण्ड को 'क्षीरसागर' या 'कृष्णकुण्ड' कहते हैं। इस कुण्ड के ऊपर कृष्ण ने सब गोप सखाओं के साथ भोजन किया था। भोजन करने के स्थल में अभी भी पहाड़ी में थाल और कटोरी के चिह्न विद्यमान हैं। पास में ही श्रीकृष्ण के बैठने का सिंहासन स्थल भी विद्यमान है। भोजन करने के पश्चात् कुछ ऊपर पहाड़ी पर सखाओं के साथ क्रीड़ा कौतुक का स्थल भी विद्यमान है। सखालोग एक शिला को वाद्ययन्त्र के रूप में व्यवहार करते थे। आज भी उस शिला को बजाने से नाना प्रकार के मधुर स्वर निकलते हैं। यह बाजन शिला के नाम से प्रसिद्ध है। पास में ही शान्तनु की तपस्या स्थली शान्तनुकुण्ड है, जिसमें गुप्तगंगा नैमिषतीर्थ, हरिद्वार कुण्ड, अवन्तिका कुण्ड, मत्स्य कुण्ड, गोविन्द कुण्ड, नृसिंह कुण्ड और प्रह्लाद कुण्ड ये एकत्र विद्यमान हैं। भोजन स्थली की पहाड़ी पर श्रीपरशुरामजी की तपस्या स्थली है। यहाँ पर श्रीपरशुरामजी ने भगवद आराधना की थी।


काम्यवन के दरवाज़े

काम्यवन में सात दरवाज़े हैं–

  1. डीग दरवाज़ा– काम्यवन के अग्नि कोण में (दक्षिण–पूर्व दिशा में) अवस्थित है। यहाँ से डीग (दीर्घपुर) और भरतपुर जाने का रास्ता है।
  2. लंका दरवाज़ा– यह काम्यवन गाँव के दक्षिण कोण में अवस्थित है। यहाँ से सेतुबन्ध कुण्ड की ओर जाने का मार्ग है।
  3. आमेर दरवाज़ा– काम्यवन गाँव के नैऋत कोण में (दक्षिण–पश्चिम दिशा में) अवस्थित है। यहाँ से चरण पहाड़ी जाने का मार्ग है।
  4. देवी दरवाज़ा– यह काम्यवन गाँव के पश्चिम में अवस्थित है। यहाँ से वैष्णवीदेवी (पंजाब) जाने का मार्ग है।
  5. दिल्ली दरवाज़ा –यह काम्यवन के उत्तर में अवस्थित है। यहाँ से दिल्ली जाने का मार्ग है।
  6. रामजी दरवाज़ा– गाँव के ईशान कोण में अवस्थित है। यहाँ से नन्दगांव जाने का मार्ग है।
  7. मथुरा दरवाज़ा– यह गाँव के पूर्व में अवस्थित है। यहाँ से बरसाना होकर मथुरा जाने का मार्ग है।

वीथिका काम्यवन

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. चतुर्थ काम्यकवनं वनानां वनमुत्तमं। तत्र गत्वा नरो देवि ! मम लोके महीयते ॥ आ. वा. पुराण
  2. श्रीब्रजेन्द्रनन्दन कृष्ण ने
  3. स्कंध पुराण
  4. महाभारत वनपर्व 11
  5. महाभारत वनपर्व 10, 11
  6. देख यशोदाकुण्ड परम निर्मल। एथा गोचारणे कृष्ण हईया विहृल॥ (भक्तिरत्नाकर
  7. देखह नारद कुण्ड नारद एई खाने। हैल महा अधैर्य कृष्णेर लीला गाने।(भक्तिरत्नाकर
  8. स्कंध पुराण

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