(हरि) पतित-पावन, दीन-बंधु, अनायनि के नाथ।
संतत सब लोकनि स्रुति, गावत यह गाथ।
मोसौ कोउ पतित नहिं अनाथ-हीन दीन।
काहे न निस्तारत प्रभु, गुननि-अँगनि-हीन।
गज, गनिका, गौतम-तिय मोचन मुनि-साप।
अरु जन-संताप-दरन, हरन-सकल-पाप।
मनसा-बाचा-कर्मना, कछू कही राखि ?
सूर सकल अंतर के तुमहीं हौ साखि।।182।।