’भगवत्ता’-से रहित नहीं माना जाता कोई भगवान।
शक्तिरहित समझा जाता है इसी भाँति सब मृतक-समान॥9॥
जगन्नियामकत्व, शुचि सच्चित्-आनन्दत्व नित्य निर्बाध।
सृजन-स्थिति-संहार, जगत्-कर्तृत्व, नित्य ईशत्व अगाध॥10॥
पृथक्-पृथक् हैं दोनों में, पर तनिक न अनुपपत्तिका दोष।
एक तत्त्व दोनों स्वरूपतः नित्य निरन्तर अविचल ठोस॥11॥
एक बने दो लीला-रत रहते नित शक्ति, शक्ति-आधार।
विविध खेल रचते, होते अति मुदित एकको एक निहार॥12॥
नहीं पुरुष तुम, नहीं नारि हो, नहीं नपुंसक, सर्वातीत।
तदपि सर्वमय सदा तुम्हीं हो; तुम ही पुरुष, नारि सुपुनीत॥13॥
मूलप्रकृति राधा तुम, दुर्गा, लक्ष्मी, शुभ सावित्री रूप।
सरस्वती, गंगा, तुलसी तुम दिव्यशक्ति सब भाँति अनूप॥14॥
स्वाहा, स्वधा, दक्षिणा, षष्ठी, मनसा, पुष्टि, तुष्टि हो स्वस्ति।
नहीं तुम्हारे बिना कहीं कुछ; तुम्हीं नास्ति हो, तुम ही अस्ति॥15॥
करुणा-सुधामयी देवी! तुम परम मनस्विनि, अमित उदार।
राधा-रूप-चरण-रज दे निज करो तुरंत कृपा-विस्तार॥16॥