हौ कछु बोलनि नाही लाजन।
एक दाउँ मारिबो पै मारिबौ, नंदनँदन के काजन।।
तजि ब्रज बाल आपनौ गोकुल, अब भाए सुख राजन।
कागद लिखि पतियौ नहि पठवत, पायौ जिय कौ माजन।।
जे गृह देखि परम सुख होतौ, बिनु गोपाल भय भाजन।
कासौ कहौ सुनै को यह दुख, दूरि स्याम सौ साजन।।
कारी घटा देखि धुरवा जनु, विरह लयौ कर ताजन।
‘सूर’ स्याम नागर बिनु अब वह, कौन सहै सिर गाजन।। 3370।।